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उत्तार्चिके दशमोऽध्यायः १०.९

॥ दशम: खण्डः ॥

१३१९. श्रायन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ।

जातो जनिमान्योजसा प्रति भागं न दीधिमः ॥१॥

हे पुरुषो ! किरणां के आश्रयदाता सूर्यदेव की भाँति देवराज इनदर विश्व के अपार वैभव को धारण करने

वाले है । पिता द्वारा अर्जित सम्पत्ति का भाग प्राप्त करने के समान हम उनके (इन्द्र के) सामर्थ्य से प्रकट वैभव को

पराप्त करते हैं ॥१ ॥

१३२०. अलर्पिराति वसुदामुप स्तुहि भद्रा इन्द्रस्य रातयः ।

यो अस्य कामं विधतो न रोषति मनो दानाय चोदयन्‌ ॥२ ॥

हे स्तोताओ ! सात्विक पुरुषो को धनादि दान करने वाले इन्द्रदेव की स्तुति करो; क्योकि इनके दान

कल्याणप्रद प्रेरणा वाले है । जब ये इन्द्रदेव अपने मन को (याजको के निमित्त) देने की प्रेरणा करते है तो उपासक

की कामना को नष्ट नहीं करते ॥२ ॥

१३२१.यत इन्दर भयामहे ततो नो अभयं कृधि ।

मघवञ्छग्धि तव तन्न ऊतये वि द्विषो वि मृधो जहि ॥३ ॥

हे इन्रदेव ! हिंसकों के भय से आप हमें निर्भयता प्रदान करें । अपनी सामर्थ्य से हमारी रक्षा करने मे समर्थ,

आप हमारे द्रेषियों और हिंसकों को नष्ट करे ॥३ ॥

१३२२. त्व॑ हि राधसस्पते राधसो मह क्षयस्यासि विधर्ता ।

तं त्वा वयं मघवन्निन्द्र गिर्वणः सुतावन्तो हवामहे ॥४॥

हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमें देने के लिए आप असंख्य धन धारण करते हैं । ह स्तुति करने योग्य धनवान्‌

इन्द्रदेव ! शुद्ध सोम का आस्वादन करये के निमित्त, हम (साधक) आपको बुलाते हैं ॥४ ॥

॥इति दशमः खण्डः ॥

ऊँ के के

॥ एकादशः खण्डः ॥

१३२३. त्वं सोमासि धारयुर्मन्र ओजिष्ठो अध्वरे । पवस्व मंहयद्रयिः ॥१ ॥

हे सोमदेव ! परम सुखप्रदायक, सामर्ध्यवान्‌ आप उत्तम यज्ञ में अपनी धाराओं को एेश्वर्ययुक्त बनाएँ |

धन और बलप्रदायक हे सोमदेव ! आप कतश में शुद्ध हों ॥१ ॥

१३२४. त्वं सुतो मदिन्तमो दधन्वान्मत्सरिन्तमः । इन्दुः सत्राजिदस्तृतः ॥२॥

हे सोमदेव ! शोधित हुए आप परम हर्षवर्दक, शक्ति-सम्पन, यज्ञ के आधार, दीप्तिवान्‌, उत्साहवर्द्धक,

शत्रु-विजेता और अपराजेय हैं ॥२ ॥

१३२५. त्वं सुष्वाणो अद्विभिरभ्यर्ष कनिक्रदत्‌ । द्युमन्तं शुष्ममा भर ॥३॥

हे सोमरस ! पाषाणो से कूटकः रसरूप निष्यन आप शब्द करते हुए कलश में पविष्ट हों और हमें तेजस्विता

युक्त सामर्थ्य प्रदान करें ॥३ ॥

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