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चाकपर गढ़ा हुआ मिट्टीका पात्र “आसुर' कहा
गया है। वही हाथसे बनाया हुआ--स्थालीपात्र
आदि हो तो उसे ' दैविक" माना गया है। खुबसे
शुभ और अशुभ सभी कर्म होते हैं। अत: उसको
पवित्रताके लिये उसे अग्निमें तपानेका विधान
है। सुबको यदि अग्रभागकी ओरसे थाम लिया
जाय तो स्वामीकी मृत्यु होती है। मध्यमें पकड़ा
जाय तो प्रजा एवं संततिका नाश होता है और
मूलभागमें उसे पकड़नेसे होताकी मृत्यु होती है;
अतः बिचार कर उसे हाथमें धारण करना
चाहिये। अग्नि, सूर्य, सोम, विरञ्चि (ब्रह्माजी ),
वायु तथा यम-ये छः देवता खुबके एक-एक
अंगुलमें स्थित हैं। अग्रि भोग और धनका नाश
करनेवाले हैं, सूर्य रोगकारक होते हैं। चन्द्रमाका
कोई फल नहीं है। ब्रह्माजी सब कामना देनेवाले
हैं, वायुदेव वृद्धिदाता हैं और यमराज मृत्युदायक
माने गये हैं (अत: खुवको मूलभागकी ओर तीन
अंगुल छोड़कर चौथे-पाँचवें अंगुलपर पकड़ना
चाहिये ) । सम्मार्जनं और उपयमन नामक दो कुश
बनाने चाहिये । इनमेंसे सम्मार्जन कुश सात शाखा
(कुश )-का और उपयमन कुश पाचका होता
है । सुव तथा सुक् -निर्माण करनेके लिये श्रीपर्णी
(गंभारी ), शमी, खदिर, विकङ्कत ( कटाई) ओर
पलाश- ये पाँच प्रकारके काष्ठ शुभ जानने चाहिये।
हाथभरका सुवा उत्तम माना गया है और तीस
अंगुलका सुक् । यह ब्राह्मणोके सुव और सुक्के
विषयमे बताया गया है; अन्य वर्णवार्लोकि लिये
एक अँगुल छोटा रखनेका विधान है । नारद!
शूद्रो, पतितो तथा गर्दभ आदि जीवोंके दृष्टि-
दोपका निवारण करनेके लिये सब पात्रके प्रोक्षणको
विधि है । विप्रवर ! पूर्णपात्र-दान किये चिना वज्ञमें
छिद्र उत्पन्न हो जाता है और पूर्णपात्रको विधि
कर देनेपर यज्ञकी पूर्ति हो जाती है । आठ मुट्ठीका
संक्षिप्त नारदपुराण
"किञ्चित् होता है, चार किञ्चित्का "पुष्कल"
होता है और चार पुष्कलका एक ' पूर्णपात्र ' होता
है, ऐसा विद्वानोंका मत है । होमकाल प्राप्त होनेपर
अन्यत्र कहीं आसन नहीं देना चाहिये। दिया जाय
तो अग्निदेव अतृप्त होते और दारुण शाप देते हैं।
"आघार" नामकी दो आहुतियाँ अग्निदेवकी नासिका
कहौ गयी है । ' आज्यभाग ' नामवाली दो आहुतियाँ
उनके नेत्र हैँ । ' प्राजापत्य ' आहुतिको मुख कहा
गया है और व्याहति होमको कटिभाग बताया
गया है । पञ्चवार्ण होमको दो हाथ, दौ पैर और
मस्तक कहते हैं। विप्रवर ! ' स्विष्टकृत्" होम तथा
पर्णाहुति- ये दो आहुतियाँ दोनों कान हैं। अग्निदेवके
दो मुख, एक हदय, चार कान, दो नाक, दो
मस्तक, छः नेत्र, पिङ्गल वर्ण और सात जिह्नाएँ
हैं। उनके वाम-भागमें तोन और दक्षिण-भागमें
चार हाथ हैं। सुक्, सुवा, अक्षमाला और
शक्ति-ये सब उनके दाहिने हाथोंमें हैं। उनके
तीन मेखला और तीन पैर हैं। वे घृतपात्र लिये
हुए हैं। दो चँवर धारण करते हैं। भेड़पर चढ़े हुए
हैं। उनके चार सौग हैं। बालसूर्यके समान उनकी
अरुण कान्ति है। वे यज्ञोपवीत धारण करके जरा
और कुण्डलोंसे सुशोभित हैँ । इस प्रकार अग्निके
स्वरूपका ध्यान करके होमकमं प्रारम्भ करे । दूध,
दही, घी ओर घृतपक्र या तैलपक्क पदार्थका जो
हाथसे हवन करता है, वह ब्राह्मण ब्रह्महत्या
होता है (इन सबका सुवासे होम करना चाहिये) ।
मनुष्य जो अन्न खाता है, उसके देवता भी वही
अन्न खाते हैं। सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके
लिये हविष्यमें तिलका भाग अधिक रखना
उत्तम माना गया है। होममें तीन प्रकारकी मुद्राएँ
बतायो गयो हैं-मृगी, हंसी और सूकरी।
अभिचार-कर्ममें सूकरी-मुद्राका उपयोग होता
है और शुभकर्ममें मृगी तथा हंसी नामवाली