रेडड
* संक्षिप्त ख्रह्मवैवर्सपुराण *
ही मृत्युज्ञयने श्रेष्ठ ज्ञाका भी उपदेश किया।
मनसाकौ अपने प्राणवल्लभ पतिमें, इष्टदेव श्रीहरिमें
तथा गुरुदेव भगवान् शिवमें पूर्ण भक्ति थी; अतः
"यस्या भक्तिरास्ते तस्याः पुत्रः '--इस व्युत्पत्तिके
अनुसार उस पुत्रका नाम *आस्तीक' हुआ।
(वहाँ आये हुए) मुनिवर जरत्कारु उसी
क्षण भगवान् शंकरसे आज्ञा लेकर भगवान्
विष्णुकी तपस्या करनेके लिये पुष्करक्षेत्रमें चले
गये थे। उन तपोधन मुनिने परमात्मा श्रीकृष्णका
महामन्त्र प्राप्त करके दीर्घकालतक तप किया।
फिर वे महान् योगी मुनि भगवान् शंकरको प्रणाम
करनेके विचारसे कैलासपर आये। शंकरको
नमस्कार करके कुछ समयके लिये वहीं रुक
गये। तबतक वह बालक भी वहीं था। उदार
देवी मनसा उस बालकको लेकर अपने पिता
कश्यपमुनिके आश्रममें चली आयी। उस समय
पुत्रवती कन्याको देखकर प्रजापति कश्यपके |
मनमें अपार हर्ष हुआ। मुने! उस अवसरपर
प्रजापतिने ब्राह्मणोंको प्रचुर रत्न दान किये।
शिशुके कल्याणार्थ असंख्य ब्राह्मणोंकों भोजन
कराया। परंतप! कश्यपजीकी दिति-अदिति तथा
अन्य भी जितनी पत्नियाँ थीं, उनके मनमें भी
बड़ी प्रसन्नता हई । उनकी वह कन्या मनसा पुत्रके
साथ सुदीर्घं कालतक उस आश्रमपर ठहरी रही। |
इसीके आगेका उपाख्यान कहता हूँ, सुनो ।
अभिमन्युकुमार राजा परीक्षित्कों ब्राह्मणका
शाप लग गया । ब्रह्मन् ! दुर्दैवकी प्रेरणासे ऐसा कर्म
बन गया कि सहसरा परीक्षित् शापसे ग्रस्त हो गये।
शङ्खौ ऋषिने कौशिकीका जल हाथमे लेकर शाप
दे दिया कि ' एक सप्ताहके बीतते ही तक्षक सर्प
तुम्हें काट खायगा।' तक्षकने सातवें दिन उन्हें डैंस
लिया। राजा सहसा शरीर त्यागकर परलोक चले
गये। जनमेजयने उन अपने पिताका दाह-संस्कार
कराया। मुने ! इसके बाद उन महाराज जनमेजयने
सर्पसत्र आरम्भ किया। ब्रह्मतेजके कारण समृह-
के-समूह सर्प प्राणोंसे हाथ धोने लगे। तक्षक
भयसे घबराकर इन्द्रकी शरणमें चला गया। तब
ब्राह्मणमण्डली इन्द्रसहित तक्षककों होम देनेके
लिये उद्यत हो गयी। ऐसी स्थितिमें इन्द्रके साथ
देवता भगवती मनसाके पास गये। उस समय इन्द्र
भयसे अधीर हो उठे थे। उन्होंने भगवती मनसाकी
स्तुति कौ । फलस्वरूप मुनिवर आस्तीक माताकी
आज्ञासे राजा जनमेजयके यज्ञम आये । उन्होंने
जनमेजवसे इन्द्र और तक्षकके प्राणोंकी याचना
की । ब्राह्मणोंकी आज्ञा अथवा कृपावश राजाने वर
दे दिया। यज्ञकी पूर्णाहुति कर दी गयी । सुप्रसन्न
राजद्वार ब्राह्मण यज्ञान्त- दक्षिणा पा गये । तत्पश्चात्
ब्राह्मण, देवता ओर मुनि सभी देवी मनसाके पास
गये तथा सबने पृथक्-पृथक् उस देवीकी पूजा
ओर स्तुति कौ । इन्द्रने पवित्र हो श्रेष्ठ सामग्रियोंको
लेकर उनके द्वारा देवी मनसाका पूजन किया । फिर
वे भक्तिपूर्वक नित्य पूजा करने लगे । षोडशोपचारसे
अतिशय आदर प्रकट करते हुए उन्होंने पूजा और
स्तुति की। यों देवी मनसाकी अर्चना करनेके
| पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवके आज्ञानुसार संतुष्ट
| होकर सभी देवता अपने स्थानोपर चले गये।
| मुने! इस प्रकारकी ये सम्पूर्ण कथाएँ कह
| चुका । अब आगे और क्या सुनना चाहते हो?
नारदजीने पूछा--प्रभो! देवराज इन्दरने
| किस स्तोत्रसे देवौ मनसाकी स्तुति की थी तथा
किस विधिके क्रमसे पूजन किया था? इस
प्रसङ्गको मैं सुनना चाहता हूँ।
भगवान् नारायण कहते हैं--नारद ! देवराज
इन्द्रने स्नान किया। पवित्र हौ आचमन करके दो
नूतन वस्त्र धारण किये। देवी मनसाको रत्रमय
सिंहासनपर पधराया और भक्तिपूर्वक स्वर्गगङ्गाका
| जल रब्रमय कलशमें लेकर वेदमन्त्रोंका उच्चारण
| करते हुए उससे देवीको स्नान कराया। विशुद्ध दो
| मनोहर अग्रिशुद्ध वस्त्र पहननेके लिये अर्पण
किये। देवीके सम्पूर्ण अड्भोंमें चन्दन लगाया।