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मं० १ सृ० १२९ १९९

विश्व व्यापक, महान्‌ एवं सामर्थ्यशालो अग्निदेव सूर्यदेव के समान ही यजमान लिए

दाहिने हाथ में धन धारण करते हैं। वे मुक्त हस्त से यशोभिलाषी सत्कर्मशीलों को धन देते हैं, दुष्टों और

दुराचारियों को नहीं। हे अग्निदेव ! दिव्यता युक्त आप हविष्यान्न के अभिलाषी समस्त देवो के

करते हैं तथा श्रेष्ठ कर्म करने वालों के निमित्त धन प्रदान करते है । आप उनके लिए धनकोष को पूर्ण रूप

से खुला कर देते हैं ॥६ ॥

१४४३. स मानुषे वृजने शन्तमो हितो३ग्निर्यज्ञेषु जेन्यो न विश्पति:प्रियो यज्ञेषु विश्पतिः ।

स हव्या मानुषाणामित्ठा कृतानि पत्यते ।

स नस्त्रासते वरुणस्य धूर्तेर्महों देवस्य धूर्तेः ७ ॥

वे अग्निदेव मनुष्यों के पाप निवारण के निमित्त यज्ञीय कर्मों में अतिसुखप्रद ओर कल्याणकारी हैं । विजेता

नरेश के समान ही प्रजाजनों के पालक और स्मेह पात्र है । यजमानों द्वारा प्रदत्त हविष्यात्र को अग्निदेव ग्रहण करते

है । ऐसे अग्निदेव यज्ञकर्म के विरोधियों और धूर्तजनो से हमें सुरक्षित करें तथा महिमायुक्त देवताओं के

कोपभाजन होने से हमें बचायें ॥७ ॥

१४४४. अग्निं होतारमीछते वसुधितिं प्रियं चेतिष्ठमरतिं न्येरिरे हव्यवाहं न्येरिरे ।

विश्वायुं विश्ववेदसं होतारं यजतं कविम्‌ ।

देवासो रण्वमवसे वसूयवो गीर्भी रण्वं वसूयवः ॥८ ॥

धन- धारणकर्ता, अतिचैतन्य, प्रेरणायुक्त, सर्वप्रिय, होतारूप अभ्निदेव कौ सभी मनुष्य प्रार्थना करते हुए उनसे

प्रेरणा रहण करते हैं । उनके प्रयास से हविवाहक सवके प्राण स्वरूप सर्वज्ञाता, देवावाहक, पूजनीय और क्रान्तदर्शों

अग्निदेव भली प्रकार प्रज्वलित किये गये है । ऋत्विग्गण धन की कामना से प्रेरित होकर अपने संरक्षणार्थ उन

मनोहारी अग्निदेव की स्तोत्र गान करते हुए अर्चना करते हैं ॥८ ॥

[ सूक्त - १२९ |

[ ऋषि- परच्छेप टैवोदासि । देवता- इन्द्र; ६इन्द्‌ । छद- अत्यष्टि ८-९ अतिशक्वरी; ११ अष्टि । ]

१४४५. यं त्वं रथमिन्द्र मेधसातयेऽपाका सन्तमिषिर प्रणयसि प्रानवद्य नयसि ।

सद्यक्चित्तमभिष्टये करो वशश्च वाजिनम्‌। सास्माकमनवद्य तूतुजान वेधसामिमां

वाचं न वेधसाम्‌ ॥१॥

हे पापरहित प्रेरक इन्द्रदेव ! आप यज्ञ कार्य के लिए अपने रथ को आगे बढ़ाते है ओर अपरिपव्वो को भो

शीघ्रता से अभीष्ट प्राप्ति के लिए उपयोगी बना देते है । अत्र (हवि) के प्रति आपका विशेष आकर्षण है ।

शीघतापूर्वक श्रेष्ठकर्मों को सम्पन्न करने वाले पापर मुक्त हे इन्द्रदेव ! वेदज्ञो की इस स्तुति रूपी वाणी के समान

ही इस हवि को भी आप स्वीकार करें ॥१ ॥

१४४६. स श्रुधि यः स्मा पृतनासु कासु चिदक्षाय्य इन्र भरहूतये नृभिरसि प्रतूर्तये नृभिः ।

यः शरैः स्वश: सनिता यो विप्रर्वाजं तरुता ।

तमीशानास इरधन्त वाजिनं पृक्षमत्यं न वाजिनम्‌ ॥२ ॥

हे इन्द्रदेव ! आप संग्रामो में वीर पुरुषों के साथ शत्रु को नष्ट करने में कुशल हैं । भरण-पोषण के क्रम में जो

स्वयं प्राप्त करने वाले तथा अन्नादि का वितरण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष हैं, उन्हें आप शक्ति-सामर्थ्य देते हैं आप

हमारी प्रार्थना सुनें । जिस प्रकार बलशाली लोग अश्व का सहारा लेते हैं, उसी प्रकार समर्थ लोग तेजस्वी इन्द्रदेव

का आत्रय लेते हैं ॥२ ॥

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