आचारकाण्ड ]
+ तिथित्तत, कारव्रत एवं नक्षत्रादि-त़्तनिरूपण *
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श्रवणद्वादशीत्रतत
ब्रह्माजीने कहा--अब र्म प्राणिर्योको भोग और मोक्ष
प्रदान करनेवाले श्रवणद्वादशीव्रतका वर्णने ककूँगा। श्रवण
यक्षत्रसे युक्त एकादशी और द्वादशी तिथि जब एक
ही दिन पड़ती है तो उसे विजया तिथि कहा जाता है।
इस दिन हरिकी पूजा आदि करनेसे प्राप्त पुण्यका फल
अक्षय होता है। एकभुक्तद्रत करनेसे अथवा नक्तब्रत
करनेसे या अयाचितन्रत करनेमे अथवा उपवास या
भिक्षाचार करनेसे इस हादशौतव्रतका पुण्य क्षीण नहीं होता
है। ब्रत्तीको इस द्वादशके दिन कांस्यपात्र, मांस, शहद,
लोभ, असत्यभाषण, व्यायाम, मैथुन, दिने सोना, अञ्जन्,
पत्थरपर पिसे हुए द्रव्य तथा मसूरका प्रयोग नहीं
करना चाहिये।
यदि भाद्रपदमासमें शुक्लपक्षकी द्वादज्ञी तिथि श्रवण
नक्षत्रसे युक्त हो तो यह द्वादशौ बहुत हो महत्त्वपूर्ण होती
है। उस दिन उपवास करनेसे महान् फलोंकी प्राप्ति होती
है। यदि यह तिथि बुधवारसे भी युक्त हो तो इस दिन
नदियोंके संगममें स्नान करनेसे महनीय फल प्राप्त होते हैं।
इस दिन रत्न एवं जलसे परिपूर्ण कुम्भमें दो श्रेतवस्वॉसे
आच्छादित भगवान् वामनकी स्वर्णमयी प्रतिमाका छत्र और
जूता-समन्यित पूजन करना चाहिये।
बिद्वान्कों चाहिये कि “ॐ मपो वासुदेवाय' इस मन्त्रसे
भगवान् बामनके सिरको पूजा करके, ' ॐ श्रीधराय नमः"
मन्त्रसे उनके मुखमण्डलकी, * ॐ कृष्णाय नमः” मचसे
उनके कण्टकी, " ॐ श्रीपतये नप: ' मन्रसे उनके वक्षःस्थलकी,
"ॐ> सर्वास्थरधारिणे जयः ' मन्त्रसे उनको भुजाओंकी, " ॐ
व्यापकाय नमः" मन्त्रसे उनके कुक्षिप्रदेशकी, ' ॐ केशवाय
नमः' मन््रसे उनके उदकौ, "ॐ त्रैलोक्यपतये नमः!
मन्त्रसे उनके मेद् (गुहा) - भागकी तथा "ॐ सर्वभूते नमः'
मत्त्रते उनकी जंघाओंको और ॐ सर्वात्मने नमः ' मनतरसे
उनके पैरोंकी पूजा करनी चाहिये । उन्हें धृत ओर पायसका
यैवेद्य समर्पित करे। कुम्भ और मोदक दै करके रात्रिमें
जागरण करना चाहिये । तदनन्तर प्रात:काल होनेपर स्नान
ओर आचमन करे और उनकी पुनः पूजा करके
पुष्पाञ्जलिसहित इस प्रकार प्रार्थना करे--
नमो नमस्ते गोविन्द ब्रुधअ्रवणसंज्ञक ॥
अधौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव।
(११६। ११-१२)
है गोविन्द! ज्ञानस्वरूप ! श्रवण नामवाले देव! आपको
बारम्बार नमस्कार है। आप मेरे समस्त पापसमूहोंका विनाश
करके मेरे लिये सभी सुखॉकों प्रदान करनेवाले होयें।
प्ार्थनाके बाद "प्रीयतां देवदेबेश*-ऐसा कहते हुए
ब्राह्मणॉंको कलशोंका दान दे। इस व्रत-पूजाकों नदीतट
अथवा अन्य किसी पवित्र स्थानपर करनेसे सभी इच्छाएँ
पूर्ण हो जाती है । (अध्याय १३६)
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तिधित्रत, वारव्रत एवं नक्षत्रादिव्रत-निरूपण और प्रतिपदादि तिथियों पूजनीय देवता
ब्रह्माजीने कहा -- कामदेवत्रयोदशी तिथिकों श्वेतकमल
आदिके पुष्पोंसे रति और प्रीतिसे युक मणिविभूषित
शोकरहित क्रामदेवकी पूजा करनी चाहिये, इस ख़तका नाम
मदसत्रयोदशों है। जो वर्षपर्यन्त प्रत्येक मासक शुक्ल और
कृष्णपक्षको चतुर्दशी एवं अष्टमी तिथिमें उपवास करके
शिवपूजन करता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है। इसे
शिवचतुर्दशी तथा शिवाष्टमीव्रत कहा गया है। तोन रात्रियोंतक
उपवास रखकर ब्रतोकों कार्तिकमासमें एक शुभ भवनका
दान देना चाहिये। ऐसा करनेसे सूर्यलोककौ प्राप्ति होती
है, यह कल्याणकारी धामव्रत है। अमावास्या तिथिमें
पितरॉकों दिया गया जले आदि अक्षय होता है। नक्तत्नत
करके बारोंके नामसे सूर्यादिकी पूजा करके ब्रती सभी
फलोंको प्राप्त करतेका अधिकारी हो जाता है। ये वारत्रत
कहलाते हैं।
हे ब्रह्मर्षि! प्रत्येक मासके नामकरणके प्रयोजक बारहों
नक्षत्रसे युक्त उन-उन महीनोंकी पूर्णिमा तिथि हो तो उन
नक्षऑऔके नापसे मनुष्वको सम्यक् -रूपसे भगवान् अच्युतकौ
पूजा करनी चाहिये । इस ब्रततको कार्तिकमाससे प्रारम्भ
करना चाहिये । कृत्तिका नक्षत्रयक्त कार्तिकमासमें केशवकी
पूजा करनी चाहिये! क्रमशः चार महीनों (कार्तिक,
मार्गशीर्ष, पौष तथा माघ)-में घृतका हवनकर तिल- चावल
{ कुसरात्र )- कौ खिचड़ीकां भोग निवेदित करना चाहिये ।