Home
← पिछला
अगला →

ॐ&) ||

१९९

04040044 औ ही हे मे के है हे हे हे है है ही कि है हे है कै 44... 4.6.49... 44.4.63... +++ 4334 4 कौ म त मौ मे औ कि हे के ही औ औ न जके कैज कैन जनिन

ओर ठोस बाँसके झुरमुटोंसे वह पर्वत बड़ा ही मनोहर

मालुम होता है॥ १७--१८ ॥ उसके सरोवरोंमें कुमुद,

उत्पल, कल्हार और शतपत्र आदि अनेक जातिके कमल

खिले रहते हैं। उनकी शोभासे मुग्ध होकर कलरव करते

हुए झुंड-के-झुंड पक्षियोंसे वह बड़ा हौ भला लगता

है॥ १९॥ वहाँ जहाँ-तहाँ हरिन, वानर, सूअर, सिंह,

रीछ, साही, नीलगाय, शरभ, बाघ, कष्णमृग, भैंसे,

कर्णानत्र, एकपद, अश्वमुख, भेड़िये और कस्तूरी-मृग

घूमते रहते हैं तथा वहाँके सरोवरोंके तट केलॉकी

पदक्तियोसि धिरे होनेके कारण बड़ी शोभा पाते हैं। उसके

चारों ओर नन्दा नामकी नदी बहती है, जिसका पवित्र जल

देवी सतीके खान करनेसे और भी पवित्र एवं सुगन्धित हो

गया है। भगवान्‌ भूतनाथके निवासस्थान उस

कैलासपर्वतकी ऐसी रमणीयता देखकर रेवता ओको बड़ा

आश्चर्य हुआ॥ २०--२२॥

वहाँ उन्होंने अलका नामकी एक सुरम्य पुरी और

सौगन्धिक बन देखा, जिसमें सर्वत्र सुगन्ध फैलानेवाले

सौगन्धिक नामके कमल खिले हुए थे॥२३॥ उस

नगस्के बाहरकी ओर नन्दा और अलकनन्दा नामकी दो

नदियाँ हैं; वे तीर्थपाद श्रीहरिकी चरण-रजके संयोगसे

अत्यन्त पवित्र हो गवी ह ॥ २४ ॥ विदुरजी ! उन नदियोमिं

रतिविलाससे थकी हुई देवाडुनाएँ अपने-अपने

निवासस्थानसे आकर जलक्रीडा करती हैं और उसमें

प्रवेशकर अपने प्रियतर्मोपर जल उलीचती हैं॥२५॥

ख्ानके समय उनका तुरंतका लगाया हुआ

धुल जानेसे जल पीला हो जाता है। उस

जलको हाथी प्यास न होनेपर भी गन्धके लोभसे स्वयं पीते

और अपनी हथिनियॉको पिलाते हैं॥ २६ ॥

अलकापुरीपर चांदी, सोने और बहुमूल्य मणियोकि

सैकड़ों विमान छये हुए थे, जिनमें अनेकों यक्षपत्रियाँ

निवास करती थीं। इनके कारण वह विशाल नगरी बिजली

और बादलोंसे छाये हुए आकाशके समान जान पड़ती

थी ॥ २७ ॥ यक्षराज कुबेरकी राजधानी उस अलकापुरीको

पीछे छोड़कर देवगण सौगन्धिक वनमें आये। वह वन

रेग-बिरंगे फल, फूल और पत्तोंवाले अनेकों कल्पवृक्षोंसे

सुशोभित था॥ २८ ॥ उसमें कोकिल आदि पक्षियोंका

कलरव और भौंगेंका गुंजार हो रहा था तथा राजहंसोंके

परमप्रिय कमलकुसुमोंसे सुशोभित अनेकों सरोवर

थे॥ २९ ॥ वह वन जंगली हाथियोंके शरीरकी रगड़

लगनेसे घिसे हुए हरिचन्दन वृक्षोका स्पर्श करके

चलनेवाली सुगन्धित वायुके द्वारा यक्षपत्रियोंके मनको

विशेषरूपसे मथे डालता था॥३०॥ बावलियोंकी

सीढ़ियाँ बैदूर्यमणिकी बनी हुई थीं। उनमें बहुत-से कमल

खिले रहते थे। वहाँ अनेकों किम्पुरुष जी बहलानेके लिये

आये हुए थे। इस प्रकार उस वनकी शोभा निहारते जब

देवगण कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें पास ही एक वटवृक्ष

दिखलायी दिया ॥ ३१ ॥

वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा था तथा उसकी शाखा

पचहत्तर योजनतक फैली हुई थीं। उसके चारों ओर सर्वदा

अविचल छाया बनी रहती थी, इसलिये घामका कष्ट कभी

नहीं होता था; तथा उसमें कोई घोंसला भी न था॥ ३२॥

उस महायोगमव और मुमुक्षुओंके आश्रयभूत वृक्षके नीचे

देवताओनि भगवान्‌ शङ्भूरको विराजमान देखा । वे साक्षात्‌

क्रोधहौन कालके समान जान पड़ते थे ॥ ३३ ॥ भगवान्‌

भूतनाथका श्रोअङ्ग बड़ा हो शान्त था। सनन्दनादि शान्त

सिद्धगण और सखा -- यक्ष -रक्षसोकि स्वामी कुबेर उनकी

सेवा कर रहे थे ॥ ३४ ॥ जगत्पति महादेवजौ सारे संसारके

सुहद्‌ हैं, स्रेहहश सबका कल्याण करनेवाले हैं; वे

लोकहितके लिये ही उपासना, चित्तकी एकाग्रता और

समाधि आदि साधनोंका आचरण करते रहते हैं॥ ३५ ॥

सश्याकालीन मेघकी-सी करन्तिवाले शरीरपर ते

तपस्वियोकि अभीष्ट चिह्--भस्म, दण्ड, जरा और मृगचर्म

एवं मस्तकपर चन्द्रकला धारण किये हुए थे॥ ३६ ॥ वे

एक कुशासनपर बैठे थे और अनेकों साधु श्रोताओंके

वीच श्रीनारदजीके पूछनेसे सनातन ग्रह्म्का उपदेश कर

रहे थे ॥ ३७ ॥ उनका बायाँ चरण दायीं जाँघपर रखा था।

वे बायाँ हाथ बायें घुटनेपर रखे, कलाईमें रुद्राक्षकी माला

डाले तर्कमुद्रासे# विराजमान थे॥ ३८ ॥ वे योगपद

रूम ज्ञनमुद्रा भो है।

← पिछला
अगला →