माहेश्यरखण्ड-कुमारिकाखण्ड ] % संवर्ते मुखसे महीसागरसक्षमकी महिमा #
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होता है, ऐसा कटा गया है। स्वाभिकार्तिकेयका भी इस
विफ्पर्में ऐसा ही वचन दै । यदि तुमछोग किसी एक
स्थानत सथ तीर्थो संयोग चाहते हो तो परम पुण्यमप
महीसागरसक्ञम तीर्थमें आओ । मैंने भी पके बहुत वर्षतक
बहोँ निवास किया दै । यो नारदजीके भयसे आकर रहता हूँ ।
मद्दीसागरसज्ञममें नारदजी मेरे स ही रहते थे। इधरकी
बातें उधर खगा देनेका गुण उनमें विरोषरूपसे है। इन
दिनों यजा मरुत्त मुझे दूँदढनेका प्रयास करते हैं। नारदजी
उन्हें मेरा पता अवश्य बता देंगे, यही भय था। यहाँ तो
यहुत-से दिगम्बर साधुओंके बीच उन्हींके समान बनकर मैं
भी रहता हूँ । मरुचले अधिक भयभीत होनेके कारण मैं यहाँ
गासरूपते नियास करता हूँ। मुझे सन्देह है, नारद पुनः मेरा
यहाँ रहना मरुत्तकों पता देंगे, क्योंकि उनकी प्रायः ऐसी
चेश देखी जाती है। दुमो कभी किसीसे यह सब्र न
कना । राजा मरुत्त यशकी सिद्धेके लिये चेश्व कर रहे हैं।
कुछ कारणयशा दैवताओंके भ चार्य मेरे फिताने उनको त्याग
दिया है। अतः उस यशा ऋत्थिग_ धनानेके लिये उन्होंने
मृश्च गुरुपुत्रकों ही मनोनीत किया है। परंनु अविद्या
अन्तर्गत होनेब्राले डिसात्मकू यझोंसे मेरा कोर प्रयोजन नहीं
है। श्ललिये राजा इन्ट्रयुश्नके साथ तुमछोग झीक्ततापूर्यक
मदीसागरसक्लम तीर्थमं जाओ । वशे पाँच तीथोंका सेवन
करते हुए तुमछोग निश्चव दी मेश प्रात कर लो |
ऐसा कहकर संवर्तजी अपने अभीष्ट खानक चले गये
और इन्द्रधुप्न आदि वे सर लोग भर्तृयश गुनि पास पहुँच-
कर वक्षं मदीसागरङ्गम तीर्थे रने छगे । मुनिने अपने
विशेष शानसे जान दिया कि ये ख्व योग भगवान् झह्ूरके
गाल हैं। यह जानकर वे उन सव होमे बोले--'अहों !
तुमलोगोंका पुष्प अत्यन्त निल ओर महान् दै। जिससे
इस महीखागरशज्ञम नामक गुतक्षेत्रमें तुग्शारा आगमन हुआ
है। मद्रीसागरसक्षममें किया हुआ क्वान, दान, जप, होम
और विज्लेपतः पिण्डदान सब अक्षप होता है । पूर्णिमा और
अमायास्याकों यहाँ किया हुआ स्नान, दान और जय आदि
सब कर्म अक्षय कड देनेवाला होता है । देवा नारदने
पूथंकालमें जब यहाँ स्थान निर्माण क्रिया था, उस समय
ग्रहोंने आकर वरदान दिया था। शनिदेवने जो यरदान
दिया, चह इस प्रकार है--'जिस समय यानदारके साथ
अमायास्पा दो, उस दिन यहाँ स्नान, दानपूर्ईक भाद करे ।
यदि भावण मासके झनिवारक्नों अमावास्या तिनि हों और
उसी दिन धूर्वकी संक्रान्ति तथा भ्यतीषात बोग भी हो तो
यह “पुष्कर! नामक पर्ष होता है। इसका महत्व सौ सूर.
अहरणणोंसे भी अधिक है। उक्त सब योगो सम्बन्ध यादि
किसी प्रकार उपरूब्ध हो जय, तो उस दिन छोड्टेकी धनि.
मूर्तिका और सोनेकी सूर्यप्रतिमाका मद्दीसागरसच्ञममें विधिपूर्वक
पूजन करना चाहिये । निके मन््त्रोंसे शनिक्मा और सुर्य.
सम्बन्धी मन््त्रोंसे सूयंका ध्यान करके सव वार्षोकी शान्तिके
दिये भगवान् सूर्यकों अर्यं देना चाहिये उस समय यहाँका
स्नान प्रवागसे भी अधिक है, दान कुरक्षेत्रले भी बढ़कर
है। महान् पुण्यराशि सहायक दो, तभी यद सब योग प्रास
शता है | यहाँ किये हुए आदसे फितरोंकों स्वर्गमें अक्षय
तृप्ति प्रास होती है । जैसे परम पवित्र गधाशिर फ्तिरोंके छिये
परम तृतिदायक है । इसी प्रकार उससे भी अधिक पुण्य
देनेबाल्य महीसागरतज्रम है |/--“अग्निश्च ते योनिरिडा च
देहो रेतो5थ विष्णोरमृतस्प नाभिः |? अर्थात् "हे मद्दीनदी !
अग्नि तुस्दरी योनि ( उत्पत्तिस्घान ) और (ध्बी तुग्दारी
देह दे । तुम यहस्वरूप पिप्णुके वीरस उत्पन्न हुई हो और
अमृतका केन्द्रस्मान हो।? इस सत्य वाक्यका अद्धापूर्यक
उद्यारण करते हुए महीखागरसङ्गम तीर्थमें स्नान करना
चाहिये । जो सब नदियोंमें प्रधान और प्रवित्न सागर है,
तथा प्रचुर ज्टवाढी समस्त तीर्थस्थरूपा जये दी नदी है;
इन दोन में अर्य देता हूँ, प्रणाम करता हूँ और इनकी
स्तुति भी करता हूँ। रामरा, रस्या, प्योयाहा, पितृप्रीतिप्रदा,
शुभा, रस्प्माटाः महाचिन्धु, दातृदात्रीः प्रथुसतुता, इन्द्र
युन्नकन्पा, क्वितिजन्म्य, श्राबती, मह्दीपर्णा+ महीशाः गङ्गाः
पथिमपादिनी, नदी तथा राजनदी- दन अठार्इ नामोंकी
माल्यका स्नानच्ट और आदकालमें मनुष्य सर्वत्र पाट
करे । ये सब नाम महाराज (धुके के हुए हैं, इनका पाठ
नेवादा मनुष्य यहुमूर्ति भगवान् विष्णुके पदको प्रात
होता है ।७ तदनन्तर निम्नाङ्कित मन्त्र पदकर महौ नदीहों
अर्ये देना चाहिये ---
» मुखं च पः सवनदोतु पुष्य
पायोषिरम्ुप्रचुरा रहो च ।
समसततीी हतिरेतयो था
ददानि चान्ये प्रणमामि ननि ॥
ताग्रा रक्वा पयोवाहा वितृप्रीकिदा शुभ ।
शब्यमात्. महासिल्धुरदातुरदाती. शृुस्तुना ॥
इसन्द्रधुश्नस्थ कन्पा च ख्षितिकर्ता इराबतों ।
भहोपणौ मद्रोशक्का गा पण्िमबादिनों ॥