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यज्ञोपवीत, आभूषण और क्रपण्डलुका भी त्या

करे। चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा तथा पर्वके दिन

तैलाध्यज्ज एवं स्त्री-सहवास न करे। वुद्धिमान्‌

ननुप्व कभी पैर और जङ्घा फैलाकर न खड़ा हो।

पैरॉंकों न हिलाये तथः पैरको पैरसे न दबाये।

किसीको चुभतों बात न कटे । निन्दा और चुगली

छोड़ दे। दम्भ. आमिमान और तीखा व्यवहार

कर्दापि न करे। मूखं, उन्मत्त, व्यसनी, कुरूप

५।य। बी, हीनान्न त्था अधिकाङ्गं मनुष्योंको खिष्ठी

ः उड़ाये। पुत्र और शिष्यको शिक्षा देनेके लिये

आवश्यकता हौनपर उर्कीकों दण्ड दे, दूसरॉको

नहाँ। आसनको पैरसे खींचकर न नैठे। सायंकाल

और प्रातःकाल पहले अतिथिका सत्क करके

फिर स्तवं भोजन करे।

वत्स ! सदा पूर्व या उत्तकी ओर मुँह करके

ही दातुन छरें। दातुन करो समय मौन रहे।

दातुनक्रे लिये निषिद्धं बुक्षोका परित्याग करे।

उत्तर और गश्चिमकी ओर सिर करके कभी न

ध्षेबे। दक्षिण या पूर्व दिशाकी ओर ही मस्तक |

करके सोने । दुर्गन्धि-युक्त जलमें स्नान न करे।

रात्रियें न नहावे, अहणके समव रात्रिँ भी एनान

करन बहुत उत्ता है; इसके सिवा आग्य सम॑भमें |

दिनमें ही स्नटका विध्राने है। स्नान कर लेनेके

बाद हाथ या कपड़ेसे शरोस्को न मले। बालों

और ह#स्त्रोंकों ग॒ फटकारे। विद्वान्‌ पुरुष {जिना

म्ना किये कभी चन्दन न लगाये। लाल,

रंगबिरंगे और काले रंगके कपडे न पहने। जिसँ

बाल, थूक या कड़े पड़ गदे हों, जिसपर कुत्तेकी

दृष्टि पड़ी हो, जिसको किसोने चा लिया हो | पहलेके

अथवा जो सारभाग निकाल लेनेके कारण दषित

हो ॥4। हो, कं अन्नकों न खाय। बहुत देश्के

बने हुए और जासों भातकों त्या २ पौरी,

भाग, इंखके रस और दूधकी बनी हुईं त्तु भी

यद्वि बहुत दिनोंकी हों तो उन. खाये। मूर्वे

उदय ओग अस्तक समय ५ न क्ररे। चिना

* संक्षिस सार्कण्डेयपुराण +

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नहाये, चिना बैठे, अन्यमनस्क होक, शय्यापर्‌

बैटकर या सोकर, कैषल पृध्तीपर बैठकर,

बोलते ६५, एक कपड़ा पहनकर तथा भोजनकी

ओर देखनेचाले पुरुषोंको न देकर मनुष्य कदापि

भोजन न करे। राबेरे- शाम दोनों समर भोजजनकी

यही विधि है।

विद्वान्‌ प्ररुषकों कभी परायौ स्त्रीकै साथ

समागम नहा करना चाहिसे। परस्त्री संगम भनुष्योके

इष्ट, पूर्तं ओर आयुका नाशं करनेवा्ल है । इस

संसारम पर्स्नी- समागमके सपान पनुप्वक्रो आयुका

विधातक कार्य दूसरा कोई नहीं ह । देवपूजा,

अग्निहोत्र, गुरुजनोँको प्रणाम तथा भोजन भलीरभौति

आचपन करके करना चाहिये। स्वच्छ, फेनरहित,

दुरगन्धशुन्य और पित्र जल लेकर पूर्व या

उत्तरी ओर मुँह करके आचमन करना चाहिये।

जलके भीतरकों, घरक, अभीक, चेक चिलकौ

और शौचम जची इहं यं पाँच प्रकारकी सिद्वियाँ

त्यः देने योग्य हैं। हाध-पैर धोकर एकाग्रचित्त

नार्जर करके, घुटनोंको समेटकर, दौ आर महल

दोनों किनारेंकों पो; फिर सम्पूर्ण इन्द्रियों और

मस्तक) स्पर्श करके जलसे भलोभाँति तीन बार

आचमन कर : इस प्रकार पतित्र होकर रुमाहित-

चिमे सदा देक्षताओं, पितरों और ऋष्योंको

क्रिया करती चाहिदे। थूकने, खंखारने और

कद्ध पहननेपर बुद्धिमान्‌ पुरुष आचमनं करें।

' छींकने, चाटने, बम करने, थूकने आदिके पश्चात्‌

आचमन, गायके पीठका स्पर्श, सूर्यका दर्शन

करवा तथा दाहिने कानक छू लेना चाहिये। इनमें

के अभाबमें दूसरा उपाय करना चाहिदे।

दोक 7 करकटाये। अपने शगोग्पर ताल न

दे। दोनों संध्याओंके समय अध्ययग, भोजर और

शयनका त्याग करे। सन्ध्याकालमें पैथुन और

रास्ता चलना भी निषिद्ध दै ¦ बेटा! पूर्वाक्ककालमें

देवग़ाओंका, मध्यकाले पनुष्यों (अतिथियों)

का तथा अपराकृकालमें पितरोंका धक्तिपू्॑क

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