९८ ऋगवेद संहिता भाग-९
[सूक्त - ६८]
[ऋषि - पराशर । देवता - अग्नि । छन्द - द्विपदा विराट् ।]
७७६-७७. श्रीणन्नुप स्थादिवं भुरण्युः स्थातुश्चरथमक्त्न्व्यूणोत् ।
परि यदेषामेको विश्वेषां भुवदेवो देवानां महित्वा ॥१-२ ॥
सर्वपालक अग्निदेव स्थावर ओर जंगम वस्तुओं को परिपक्व करने के लिए आकाश को प्राप्त हुए है ।
उन्होंने त्रियो को अपनी रश्मियों से प्रकाशित किया ओर सम्पूर्ण देवों की महत्ता को प्राप्त करके वे
अग्रणी हुए ॥१-२ ॥
[सूर्यों (स्व प्रकाशित तारागणों) से उत्पन्न किरणे , ग्रहों, उपग्रहों पर स्थित जड़ - चेतन पदार्थों को परिपक्व करके,
परावर्तित होकर आकाश पे फंसती हैं। उस परावर्तित प्रकाश से रात्रि प्रकाशित होती है ।]
७७८-७९. आदित्ते विश्वे क्रतुं जुषन्त शुष्काद्यदेव जीवो जनिष्ठा:
भजन्त विश्वे देवत्वं नाम ऋतं सपन्तो अमृतमेवैः ॥३-४ ॥
हे अग्निदेव जब आप सूखे काष्ठ के घर्षण से उत्पन्न हुए, तव सभी देवगणो ने यज्ञ कार्य सम्पन्न किये । हे
अविनाशी देव ! आपका अनुगमन करके ही वे देवगण देवत्वे को प्राप्त कर सके हैं ॥३-४ ॥
७८०-८१. ऋतस्य प्रेषा ऋतस्य धीतिर्विश्वायुर्विश्वे अपांसि चक्रः ।
यस्तुभ्यं दाशाद्यो वा ते शिक्षात्तस्मै चिकित्वान्रयिं दयस्व ॥५-६ ॥
ये अग्निदेव यज्ञ की प्रेरणा प्रदान करने वाले और यज्ञ के रक्षक हैँ । ये अग्निदेव ही आयु हैं ; इसीलिए
सभी यज्ञ कर्म करते हैं हे अग्निदेव ! जो आपको जानकर आपके निमित्त हवि देता है, उसे आप जानकर हवि
प्रदान करें ॥५-६ ॥
७८२-८३. होता निषत्तो मनोरपत्ये स चिन्वासां पती रयीणाम् ।
इच्छन्त रेतो मिथस्तनूषु सं जानत स्वैदक्षैरमूराः ॥७-८ ॥
मनुष्य मे होतारूप में विद्यमान ये अग्निदेव ही प्रजाओं और धनो के स्वामी है । शरीरस्थ अग्नि का वीर्य
से सम्बन्ध जानकर मनुष्य ने सन्तानोत्यतति की इच्छा प्रकट की और उन अग्निदेव की सामर्थ्य से सन्तान को
पराप्त किया ॥७-८ ॥
[आयुर्वेद में वीर्य से ओज की उत्पत्ति कही गई है वीर्य पे भरण सृजन की प्राण ऊर्जा का रहस्य समझकर इच्छित सन्तान
प्राप्त की जा सकती है ।]
७८४-८५, पितुर्न पत्राः क्रतुं जुषन्त श्रोषन्ये अस्य शासं तुरासः ।
वि राय औणोंहुर: पुरुश्ुः पिपेश नाकं स्तृभिर्दमूनाः ॥९-१० ॥
पिता का आदेश मानने वाले पत्रो के सदृश जिन मनुष्यों ने इन अग्निदेव कौ आज्ञा को सुनकर शीघ्र ही
पालन कर कार्यं सम्पन्न किया, उनके लिए अग्निदेव ने विपुल अन्न और धन के भण्डार खोल दिये । यज्ञ कमो में,
मर्यादित अग्निदेव ने नक्षत्रों से आकाश को अलङ्कृत किया ॥९-१० ॥
[ऊर्जा के जड़-पदार्थ परक प्रयोगों में चो अग्नि - विद्युत् आदि के प्रयोग के कठोर अनुशासतर है । उनका अनुपालन
कले से ही लाथ होता है । उनका अनुपालन तुरंत करने का संकेत है । राकेट संचालन ये सैकिण्ड के हजारवें घाग की धी देर
असह्ठ होती है । यज्ञीय चेतन प्रयोगों में भी इसी प्रकार के अनुशासनों का अनुपालय अभीष्ट है।]