अष्टादशोऽध्यायः
(दक्षकन्याओं का वंशकथन)
सूत उवाच
कलेः पुत्रशतं त्वा ्ीन्महाबलपगक्रमम्।
तेषा प्रधानो ययुतिमान्वाणो नाम महावल:॥ श॥
मूत बोले- राजा बलि के सौ पुत्र थे, जो महान् बल
और पराक्रम से युक्त थे। उनमें मुख्य अर्थात् सबसे बड़ा
महावलौ तेजस्वी बाण चा।
सोऽतीव जह्रे भक्तो राजा राज्यपपालयत्।
लोक्यं वशमानीय बा्यामास वासवम्॥ २॥
वहे गजा शंकर का अत्यन्त भक्त था, उसौसे उसने तीनों
लोकों को वश में करके राज्य का पालन छिया। उसने इन्दर
को भी पीडित किया।
ततः शक्रादयो देवा गत्वोचुः कृत्तिवाससम।
त्वदीयो बाधते हस्यान्वाणो नाप महासुर:॥ ३॥
तब इन्द्र आदि देवों ने शंकर के पास जाकर कहा-
आपका यह भक्त वाण नामक महासुर हमे पीडा दे रहा है।
व्याहतो दैवतैः सर्वरहवदेवो महेश्वर:।
ददाह वाणस्य पुरं शरेणैकेन लौलया॥। ४॥
सभौ देवताओं के निवेदन करने पर देवों के देव महेश्वर
ने एक हो तौर से लौलापात्र में बाण के नगर कौ जला
डाला।
दक्कमाने पुरे तस्मिन्वाणो रर त्रिशूलिनम्।
ययौ शरणीश्ानङ्गोषतिं नीललोहितम्॥ ५॥
पूर्द्धनयाथाय तत्लिङगं शाम्भवं रागवर्ज्जित:।
निर्मत्य तु पुरात्तस्मानुष्टाव परमेश्चरम्॥ ६॥
जब नगर जलने लगा, तो बाणासुर त्रिशुलधारी,
वृषभपति अधवा वाणो के अधिपति, नौललोहित, ईशान स्ट
की शरण यें गया और उनके लिङ्ग को मस्तक पर रखकर
गगरहित होकर उस नगर से बाहर निकलकर परमेश्वर की
स्तुति करने लगा।
संस्तुतों भगवानीश: शङ्करो नीललोहितः।
गाणपत्थेन वाणं त॑ योजयापास भावत:॥ ७॥
स्तुति किये जाने पर भगवान् प्रभु, शंकर, नीललोहित ने
बाण को स्नेह से अपने गाणपत्य पद पर नियुक्त कर दिया।
स्व्भानुर्वृषपर्वा च प्राधान्येन प्रकी्तिता:॥ ८॥
इस प्रकार दनु के तार आदि पुत्र हुए। वे अति भयानक
थे। इनमें तार, शम्बर, कपिल, शंकर, स्वर्भानु ओर वृषपर्वा
प्रमुख कहे गये हैं।
सुरसाया: सहस्रन्तु सर्पाणामभवदिद्ुजा:।
अनेकशिरसां तदक्खेचराणां महात्मनाम्॥९॥
हे द्विजगण! सुरसा के गर्भ से हजार सर्परूप पुत्र हुए
तथा अनेक सिर वाले महात्मा खेचर भी उत्पन्न हुए।
अरिष्टा जनयामास गद्चर्वाणां सहस्रकम
अनन्ताद्या महानागाः काद्रवेया: प्रकीर्तिताः॥ १०॥
अच्छि ने ससर गन्धर्वो को जन्म दिया। अनन्त आदि
महानाग कटू के पुत्र होने से ' काद्रवेय" कहे गये है।
ताप्रा च जनपायास षट् कन्या द्विजपुंगवा:।
शुक्की श्येनीक्र वासीक्ष सुप्रीयां ब्रस्खिकां शुचि्॥। ११॥
द्विजश्रेष्ठो! तामरा ने शुक, श्येनी, भासी, सुग्रीवा, प्रन्थिका
और शुचि नामक छह कन्याओं को उत्पन्न किया।
गास्तथा जनयामास सुरभिर्महिषीस्तवा।
इरा वृक्षलतावल्लीतृणजातीश्च सर्वश:॥ १२॥
सुरभि ने गौओं तथा भैंसों को जन्म दिया और इण से
वृक्ष, लता, वल्लौ तथा सब प्रकार की तृणजातियों की उत्पत्ति
हुई।
खसा यै यक्चरक्षामि मुनिरप्सरसस्तथा)
रक्षोगणं क्रोधयशाउजनयामास सत्तपाः॥ १३॥
हे श्रेष्ठ मुनिगण! खसा ने यक्षों तथा राक्षसो को, मुनि
नामक दक्षपुत्रो ने अप्सतओं को तथा क्रोधवशा ने राक्षसं
को उत्पन्न किया।
विनतायाक्ष पुत्र दरौ प्रख्याती गरुढारुणौ।
तयोश्च गरुड़ों धोमान्तपस्तप्ला सुदुश्चरम्।
प्रसादाच्छूलिन: प्राप्तो वाहनत्वं हरे: स्ववप्॥ १४॥
दक्षकन्या विनता के दो पुत्र प्रख्यात हुए- गरुड और
अरुण। उनमें युद्धिमान् गरुड ने कठिन तप करके शंकर को
कृषा से स्वयं विष्णु का वाहनत्व प्राप्त किया।
आराष्य तपसा देवं महादेवं तथारुण:।
सारथ्ये कल्फित; पूर्व प्रीतेनार्कस्य शम्भुना॥ १५॥