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शश्र

शरणं बज सर्पेशं सस्पुंजयमुमापतिम्‌ #

[ संक्षित्त स्कन्व॒पुराण

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आविष्टुकी प्रसन्नता पदानि वाके उस शुभ तीर्थर्मे ञान करके

फितरों और देषततार्जोका विधिपूर्वक तप॑ण करनेके पश्चात्‌ जो

तटवर्ती सिंह भगवान्‌ दर्शन, पूजन और उन्हें नमस्कार

करता है तथा पुनः मह्वेदीके समीप जाकर पूर्वत्‌

भक्तिपूर्वक्क भगवानका पूजन और बन्‍्दन करता है, बह

पुरुष हो या स्त्री, उसे मगवान्‌ पिष्णुकी सायुस्यमक्ति प्रा

हो जाती है ।

मघा नक्षत्र पितर्य दै, अतः वह पितिरौको अभिक प्रीति

प्रदान करनेवात्य है । उस नक्षत्र्मे पु्रौधरा दिया हुआ

भदक दान फितरोंकों विशेष शूष करता दे । उक्त सर्वतीर्ष-

मय सरोषरके लटफर भगवान्‌ विष्णुके समीप तिह और

नीलकण्ठके मभ्यवर्ती अशेपवित्र स्थानम यदि मनुष्य

भद्धापूर्वक भद्ध करे तो अपनी सो पीढियोंका उद्धार करता

है। आषादके झुक्क पथमे एवमी तिथि, मघा नक्षत्र और

जगन्नापजीका मरावेदीपर आगमन-ये तीनों योग यदि

परास्त हौ तो वह पितरोंको अक्षय

प्रीति देनेवास्म चतुष्पाद्‌ योग माना गया है । भाद्रपद

माठकी अमाय्रास्थाकों अपवा चारो युगादि तिपियोंमें जो

पितरि उश्यते अश्वमेधाड्न सम्भूत इन्द्रयुम्न-सरोवरफर भाद

करता दै, उसका किया हुआ बह आद्ध सब पोका नाश

करनेवालां है । सात दिनोंतक मौनभावसे तीनों काछ

शान करें और तीनों सन्ध्यां कलदापर मक्तिपूर्वक

मगयानकी पूजा करे । गायके घी अपवा तिलके तेलसे

दीपक जछाबे और उसे भगवानके आगे रखकर रात-दिन

उसकी रक्षा करे । दिनमें मौन रहे ओर रातमें जागरण

करके भंगवत्सम्बन्धी मन्‍्त्रकां जप करे | इस प्रकार सात

दिन बिठाकर आठवें दिन प्रातःफाल उठकर प्रगिष्ठा कराये |

इस अतराजक् विधिपूर्वक पालन करके मनुष्य धर्म, अर्थ,

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है। दोनों ही मोशदापिनी हैं। याज्ा और

दोनों भिरा मगयान्‌का एक ही उत्सव माना

यह पूरी यात्रा नौ दिनकी होती है | जिन

अङ्गोवाली इस याभी पूर्णतः उपासना की

गुष्डिचामण्डपले रथपर बेठकर दक्षिण दिशाकी

हुए भीष्ण, बलभद और सुभद्राका जो दर्शन करते हैं»

प्रोक्षके भागी होते रै, अर्षात्‌ भगवान येकुण्ठभाममें जाते हैं ।

मुनिबरों | इस प्रकार मैंने तुमते मयेद महोत्सबका

बर्णन किया, जिसके करीनमाजसे मनुष्य निर्मल हो जाता है ।

जो प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर इस प्रसज्ञका प्रठ करता है

अपया साबधान होकर सुनता है और भमगवश्यतिमाका चित्र

केकर भी उसे रथफर बैठाऊर भक्तिमावसे इस रथयाजाकों

सम्पन्न करता है, बह मी भगवान्‌ विष्णुकी कृपासे गुण्डिचा-

मदोत्सवके फलस्वरूप पैकुण्ठ-धाममें जाता है ।

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पुरुषोत्तमक्षेत्रमें चातुर्मास्यकी महिमा, राजा शवेतपर भगवत्पा तथा भगवत्यसादका माहात्म्य

अैमिनिजी कते हैं--दर्यके कर्क राशिपर रहते हुए.

आपाद शुस्ला एकादशीसे लेकर कार्तिक शङ्गा एकादशी"

तक यर्षाकालिक चार म्दीनोंमे भगवान्‌ विष्णुका शयन

होता है । यद भीदरिकी आराधनाद्म परम पवित्र शम्य दै।

सकि चार महीनोंमें जितने दिन मनुध्य जनाद॑नके समीप

रहकर ब्पतीत करता है, उतने खम्यतक बह प्रतिदिन

अश्वमेघयक्के फलका मागी होता है । समुद्रके पवित्र ज्म

शनान करके भरीपुरुपोत्तमका दर्शन करते हुए. ्ादुर्मास्य

अतका पालन करना भुक्तिद साधन माना गया दै । इसलिये

मनुष्य बढ़े यत्नते पुण्यमय पुरुणोत्तमक्षेत्रमें निवास करे ।

चाधरमोष्यमे भगवान शेषशाय्थापर शयन करते हैं। आठ

महीने पुरुषोक्तमक्षेत्रमें निवास करके प्रतिदिन मगबान

विष्णुका दर्शन करनेसे मनुष्य जिस फलको पाता दै, उसीको

चातुर्माल्यमें एक दिनके निवास और दर्शाने प्राप्त कर ठेता

है। जो खद प्रकारके पापम आसक्त, सम्पूणं सदाचारोसे

शर्ट तथा समस्त धरमोसे बहिष्कृते हो, वह भी पुरुषोच्स-

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