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३२ अधर्ववेद संहिता भाग-१

पै (प्रयोक्ता) तुम्हारी रोग बन्धनरूप रस्सियों को खोलता हूँ। कण्ठ प्रदेश, बगल की, मध्यदेश की एवं

निम्नदेशीय (रोगजनित) गाठों से तुम्हें मुक्त करता हूँ । हे अग्निदेव ! आप इस रोगार्त के अनुकूल होकर बढ़ें ॥१ ॥

१९३९. असमै क्षत्राणि घारयन्तमग्ने युनज्मि ता ब्रह्मणा दैव्येन ।

दीदिद्वा१स्मभ्यं द्रविणेह भद्र परमं वोचो हविदां देवता ॥२ ॥

हे अग्निदेव । हम आपको इस यजमान का बल बढ़ाने एवं हवि वहन करने के लिए बुलाते हैं। आप कृपा

करके इस रोगी के स्वास्थ्य लाभ हेतु इन्द्रादि देवों से प्रार्थना करें । हमे पुत्र, धन आदि से समृद्ध करें ॥२ ॥

[ ८४ - अमावास्या सूक्त (७९) ]

` [ऋकषि- अथर्वा देवता- अमावास्या । छन्द-१ जगती, २-४ त्रिष्ट॒प्‌ )

१९४०; यत्‌ ते देवा अकृण्वन्‌ भागथेयममावास्ये संवसन्तो महित्वा ।

तेना नो यज्ञं पिपृहि विश्ववारे रयि नो धेहि सुभगे सुवीरम्‌ ॥९॥

हे अपावास्ये ! आपके महत्त्व को स्वीकार करके देवगणो ने आपको हवि का जो भाग अर्पित किया है,

उसे ग्रहण कर हमारे इस यज्ञ को पूर्णं करे । आप हमें कार्यकुशल, सुन्दर पुत्रादि सहित धन प्रदान करें ॥१ ॥

१९४१. अहमेवास्म्यमावास्या३े मामा वसन्ति सुकृतो मयीमे ।

मयि देवा उभये साध्या्चन्द्रज्ेष्ठाः समगच्छन्त सर्वे ॥२ ॥

मैं अमावास्या का अधिष्ठाता देव हूँ । श्रेष्ठ कर्म करने वाते देवता मेरे में वास करते हैं और साध्यसहित

इन्द्रादि दोनों प्रकार के देवता मुझ में आकर समभाव से रहते हैं ॥२ ॥

१९४२. आगन्‌ रात्री संगमनी वसूनामूर्ज पुष्टं वस्वावेशयन्ती ।

अमावास्यायै हविषा विधेमोज॑ दुहाना पयसा न आगन्‌ ॥३॥

सपस्त वसुओं को मिलाने वाली पुष्टिकारक और बल-वर्द्धक धन देने वाली प्रनिश्चित अपावाम्या वाली

रात्रि आ गई है ।इसके निमित्त हम हवि अर्पित करते हैं । वे हमें अन्न, दुग्ध, अन्य रस एवं धन आद से पुष्ट करें ॥३॥|

१९४३. अमावास्ये न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिभूर्जजान ।

यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्‌ ॥४॥

हे अमावास्ये ! आपके अतिरिक्त कोई अन्य देवता समस्त जगन्‌ की रचना करने में समर्थ नहीं र । हम

आपको हेचि अर्पित करते हुए मनोकामनाओं को पूर्ति कौ प्रार्थना करते रै । हवि ग्रहण करके आप हमारी

प्रनोकामनाओं को पूर्ण करते हुए हमें घन प्रदान करें ॥४ ॥

[ ८५. पूर्णिमा सूक्त (८०) ]

[ ऋषि- अथर्वा । देक्ता- १-२.४ पौर्णमासी, ३ प्रजापति । छब्द- त्रिष्टप, २ अनुष्टुप्‌ ।]

१९४४. पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तादुन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय ।

तस्यां देवैः संवसन्तो महित्वा नाकस्य पृष्ठे समिषा मदेम ॥९॥

पूर्ण चन्द्र वाली तिथि को पूर्णमासी कहते है । पूर्व में, पश्चिम में एवं मध्य में यह दमकती है ।

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