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श्रीनरसिंहपुराण
[ अध्याय ६६
परेषां ब्राह्मणानां तु परेण ब्रह्मणा पुरा।
स दृष्टस्तु पहावृक्षो महाफलसमन्वितः ॥ ९५
किमेतदिति विप्रेन्द्न ध्यानदृष्टिपरो$भवत्।
ध्यानेन दृष्टवांस्तत्र पुनरामलक॑ तरुम्॥ १६
तस्योपरि तु देवेशं शङ्खचक्रगदाधरम् ।
उत्थाय च पुनः पश्येत्प्रतिमामेव केवलाम् ॥ १७
तत्पादं भूतले देवः प्रविवेश महातरु:।
ततस्त्वाराधयापास देवदेवेशमव्ययम्॥ १८
गन्धपुष्पादिभिर्नित्य॑ ब्रह्मा लोकपितामह:।
द्वादशभिः सप्तभिस्तु संख्याभिः पूजितो हरिः ॥ १९
तस्मिन् क्षेत्रे मुनिश्रेष्ठ माहात्म्यं तस्य को बदेत्।
श्रीसह्मामलकग्रामे देवदेवेशमव्ययम्॥ २०
आराध्य तीर्थे सम्प्राप्ता द्वादश प्रति चतुर्मुखम् ।
तस्य पादतले तीथं निस्सृतं पश्चिमामुखम्॥ २९
तच्चक्रतीर्धमभवत्पुण्यं पापप्रणाशनम्।
चक्रतीर्थे नरः स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २२
बहुवर्षसहस्राणि ब्रह्मलोके महीयते ।
शङ्खतीर्थे नरः स्नात्वा वाजपेयफलं लभेत्॥ २३
पौषे मासे तु पु्याके तद्यात्रादिवसं मुने।
ब्रह्मणः कुण्डिका पूर्व गङ्खातोयप्रपूरिता ॥ २४
तस्याद्रौ पतिता ब्रह्य॑स्तत्र तीर्थेडशुभ॑ हरेत्।
नाप्ना तत्कुण्डिकातीर्थं शिलागृहसमन्वितम्॥ २५
तत्तीर्थं मनुज: स्नात्वा तदानीं सिद्धिमाजुयात्।
त्रिरात्रोपोषितो भूत्वा यस्तत्र स्नाति भानवः ॥ २६
सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रह्मलोके पहीयते।
कुण्डिकातीर्थादुत्तरे पिण्डस्थानाच्य दक्षिणे ॥ २७
समस्त उत्तम ब्राह्मणोंमें उत्कृष्ट श्रीत्रह्मजीने पूर्षकालमें
महान् फलोंसे युक्त उस महावृक्षकों देखा था। विप्रेन्द्र!
उसे देखकर, यह क्या है--यह जाननेके लिये ब्रह्माजी
ध्यानमान हो गये। उन्होंने ध्यानमें उस स्थानपर महान्
आँवलेके वृक्षकों देखा और उसके ऊपर शङ्खं, चक्र
एवं गदा धारण करने वाले देवे ध्र भगवान् विष्णुको
विराजमान देखा। फिर उन्होने जब ध्यानसे निवृत हो
खड़े होकर दृष्टिपात किया. तब वहाँ वृक्षके स्थाने
केयल भगवान् विष्णुक्ती एक प्रतिमा दिखायी दी।
उसका आधारभूत वह दिव्य महावृक्ष भूतलमें धँस गया!
तयं लोकपितामह भगवान् ब्रह्माजी गन्धं - पष्प आदिसे
नित्य ही उन अविनाशौ देवदेवे रकौ आराधना करने
लगे। उस समय उनके हारा चारह और सात बार
भगवान्की पूजा सम्पन्न हुई ॥ १३--१९॥
पमुनिश्रेष्ठ उस आमलकक्षेत्रमें विराजमान भगवान्के
माहात्म्यका कौन वर्णन क्र सकता है। श्रोसह्मपर्वतस्थ
आमलक ग्राममें इस प्रकार अविनाशी देवे श्वर भगवान्को
आराधना करनेके पश्चात् ब्रह्माजीको वहाँ बारह तीर्थ
और प्राप्त हुए। भगवान्के चरणके नोचे पश्चिमाभिपुख
एक तीरथ प्रकट हुआ। वह “चक्रतोर्थ ' के नामसे विख्यात
हुआ। वह पायन तोर्थ पापोंको नष्ट करनेवाला है। मनुष्य
चक्रतोर्धपे स्नान करके सय पापोंसे मुक्त हो जाता है
और हजारों बर्षोंतक ब्रह्मलोकमें पूजित होता है। इसके
जादे 'शब्बुतीर्थ' है। उसमें स्नान करनेसे पनुष्यको
वाजपेय यज्ञका फल मिलता है। मुने! पौष मासमे जब
सूर्य पुष्य नक्षत्रपर स्थित हों, उसो समय वहाँकी
यात्राका षर्य हैं। पूर्वकालमें एक समय सष्पर्वतपर
गङ्गाजले भगा हुआ ब्रह्माजोका कमण्डलु गिर पढ़ा था,
तबसे बह स्थान 'कुण्डिका' तीर्थक नामसे विख्यात हुआ।
बह तों से अशुभोंकों हर लेता है। बहाँ एक शिलामय
गृह भी है। उस तीर्धमें स्वान करके मनुष्य तत्काल सिद्धि
प्रात कर लेता है। जो मनुष्य उस तीर्थे तीन राततक
उपवास करके स्नानं करता है, वह सब पापॉले सर्वथा
मुक्त हो ब्रह्मलोकमें पूजित होता है। कुण्डिका-
तोर्थसे उत्तर और ' पिण्डस्थान' नामक तोर्थसे दक्षिण