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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकधाअयसप्‌ *

मासपर्यन्त सेवन की गयी वचा तो मनुष्यको श्रुतिधारक गोखरू, सेधा नमक, त्रिकटु, वचा, काला नमक, देवदारु

विद्वान्‌ बना देती है । चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहणके अवसरषर मंजीठ और कण्टकारी ओषधिर्यौका चूर्ण मिश्रित करना

दूधके साथ एक पल सेवन की गयी वचा मनुष्यको उसी चाहिये । हे महेश्वर ! इस औषधका नस्य लेनेसे और पान

समय श्रेष्ठतम प्रज्ञावान्‌ बना देती दै ।

चिरायता, नीमकी पत्ती, त्रिफला, पित्तपापडा, परवल,

मोथा और बने हुए क्वाधका पान विस्फोटक

स्रणों और रक्तस्नावको विनष्ट कर सकता है । इसमें विचार

करनेकौ आवश्यकता नहीं है।

(काली मिर्च, सोँठ तथा पिप्पली), वचा, समुद्रफेन,

रसाञ्जन, मधु, विडंग और मैनसिल नामक औषधियोंकों

एकमें मिलाकर बनायी गयी बत्तौका नेत्रे प्रयोग करनेसे

काच, तिमिर तथा पटलदोष नष्ट हो जाते है ।

दो प्रस्थ अर्थात्‌ आठ सेर उड़द लेकर उससे एक

द्रौण अर्थात्‌ सोलह सेर जलमें क्वाथ बनाना चाहिये,

चौथाई भाग शेष रहनेपर उस क्वाथके द्वारा एक प्रस्थ

अर्थात्‌ चार सेर तेलका पाक करे। तदनन्तर उसमें एक

आदक अर्थात्‌ आठ सेर कांजी मिलाकर पिसे हुए पुनर्नवा,

करनेसे भयंकर कर्णशूल नष्ट हो जाता है । इसके अभ्यङ्गसे

अर्थात्‌ मालिश करनेसे कार्नोका बहरापन एवं अन्य सभी

प्रकारके शारीरिक रोग दूर हो जाते हैं।

दो पल सधा नमक, पाँच पल सोंठ और चित्रक, पाँच

प्रस्थ कांजी तथा एक प्रस्थ तेलको एकमे पकाना चाहिये ।

जब यह पाक सिद्ध हो जाय तो इसके नस्य, पान एवं

अभ्यङ्गसे असृण्दर (प्रदर), स्वरभंग, प्लीहा और सभी

प्रकात्के बात रोग विनष्ट हो जाते हैं।

प्रकारके अर्जुन, पिप्पली, कदम्ब, पलाश, लोध्र, तिन्दुक,

महुआ, आम, राल, बेर, कमल्‌, नागकेशर, शिरीष और

बीजङ्कतक-- इनको एकमे मिलाकर क्वाथ बनाना चाहिये ।

तदनन्तर उस क्वाधसे तैलपाक सिद्ध करे। इस सिद्ध

तेलका लेप करनेसे अत्यन्त पुराने व्रण नष्ट हो जाते है ।

(अध्याय १९२)

बुद्धि-शुद्धकर ओषधि, विविध अभ्यद्खों एवं उपयोगी चूणेकि निर्माणकी विधि,

विरेचक द्रव्य तथा औषध-सेवनमें भगवान्‌ विष्णुके स्मरणकी महिमा

श्रीहरिने कडा-{हे हर !] प्याज, जीरा, कूट, अश्वगन्धा,

अजवायन्‌, वचा, त्रिकटु और सेधा नमकसे निर्मित श्रेष्ठ

चूर्णको ब्राह्मीरससे भावित करके घृत तथा मधुके साथ मात्र

एक सप्ताह प्रयुक्त करनेपर यह मनुष्यकौ बुद्धिको अत्यन्त

निर्मल बना देता है।

सरसों, वचा, हींग, करंज, देवदार, मंजीठ, त्रिफला,

सॉठ, शिरीष, हल्दी, दारुहल्दी, प्रियंगु, नीम और त्रिकट्को

गोमूत्रमें घिसकर नस्य, आलैपने तथा उबटनके रूपमें

प्रयुक्त करना हितकारी होता है। यह अपस्मार, विषोन्माद,

शोथ तथा ज्वरका विनाशक है। इसके सेवनसे भूत-

प्रेतादि-जन्य तथा राजद्वारीय भय विनष्ट हो जाता है।

नीम, कूट, हल्दी, दारुहल्दी, सहिजन, सरसोँका तेल,

देवदारु, परवल और धनियाको मद्व धिसकर उबटन बना

लेना चाहिये । तदनन्तर शरीरम तेल लगाकर इस उबटनका

प्रयोग करे तो निश्चित ही पामा, कुष्ट. खुजली ठीक हो

जाती है।

सामुद्र लवण, समुद्रफेन, यवक्षार राजिका ( गौरसर्षप),

नमक, विडंग, कट्की, लौहचूर्णं, निशोध और सूरन- इन्हें

समान भागमें लेकर दही, गोमूत्र तथा दूधके साथ मन्द-

मन्द आँचपर पका करके जलसे पान करना चाहिये। यह

चूर्ण अग्नि और बलवर्धक है। पुराना अजीर्ण रोग होनेपर

इस चूर्णका सेवन जटामांसी आदिसे युक्त घृतके साथ

करना चाहिये। यह इस रोगकी उत्तम ओषधि है। यह चूर्ण

नाभिशूल, मूत्रशूल, गुल्म और प्लीहाजन्य जो भी शूल हैं,

उन सभी शूलॉंकों विनष्ट करनेवाला है। यह जठराग्निकों

उद्दीष्त कर देता है। परिणाम नामक शूलमें तो यह परम

हितकारी है।

हरीतकी, वला, द्राक्षा, पिप्पली, कण्टकारी,

रखे। स्तत दिन बाद पानी छानकर गिकाल ले, शेषकों फेंक दे, उसीको ' कांजी ' कहते है ।

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