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मं० ९ सु० ९९९ २८९

जिस समय गौं गोष्ठ में और पशु अपने स्थानों में विश्राम करते हैं तथा जब मु ष्य भी थककर विश्राम

करने लगते हैं, ऐसे में अदृश्य रहनेवाले ये जीव बाहर निकलते हैं और उन्हें लिपटते हैँ ॥४ ॥

१९९५. एत उ त्ये प्रत्यदृश्नग्नदोष॑ तस्कराइव। अदृष्टा विश्वदृष्टाः प्रतिबुद्धा अभूतन ॥५ ॥

ये विषाणु चोरों की तरह रात्रि में दिखाई देते है । ये अदृश्य होते हुए भी सबको दिखते हैं (उनका प्रभाव

दिखता है) । हे पनुष्यो ! इनसे सावधान रहो ॥५ ॥

१९९६. द्यौर्वः पिता पृथिवी माता सोमो भ्रातादितिः स्वसा।

अदृष्टा विश्वदृष्टास्तिष्ठतेलयता सु कम्‌ ॥६ ॥

हे विषाणु ओ ! तुम्हारे पिता दिव्यलोक, जन्म दात्री पृथ्वी, सोम भरातृरूप और देवमाता अदिति भगिनी

स्वरूपा हैं, अतः स्वयं अदृश्य रूप होते हुए भी तुम सबको देखने में समर्थ हो । अस्तु तुम किसी को पीड़ित

च करते हुए सुखपूर्वक विचरण करो ॥६ ॥

१९९७, ये अस्या ये अडग्या: सूचीका ये प्रकडकता: ।

अदृष्टाः कि चनेह व: सर्वे साकं नि जस्यत ॥७ ॥

जो जन्तु पीठ के सहारे (सर्पादि) सरक्ते हैं, जो पैरों के सहारे (कानखजूरा) चलते हैं, जो सुई के समान

(विच्छ्‌) छेदते हैं. जो महाविषले हैं और जो दिखाई वहीं पड़ते, ये सभी विधते जीव एक साथ हमें कष्ट न

पहुँचायें ॥७ ॥

१९९८. उत्पुरस्तात्सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा ।

अदष्टान्तसर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्यः ॥८ ॥

सबके दर्शनीय, अदृश्य दोषविकारों के नाशक, सूर्यदेव पूर्व दिशा मे उदय होते हैं।वे सभी अदृश्य

प्राणियों और सभी प्रकार की कुटिल चाल धारण करने वाले राक्षसी तत्वों को दूर करते हुए प्रकट होते हैं ॥८ ॥

१९९९. उदपप्तदसौ सूर्य: पुरु विश्वानि जुर्वन्‌ । आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा ॥९॥

अनेक अदृश्य जन्तुओं को विनष्ट करते हुए ये सरवर सूर्यदेव ऊपर उठते हैं, इनके उदित होते ही सभी

अनिष्टकारी (विषधारी) जीव छिप जाते हैं ॥९ ॥

२०००, सूर्े विषमा सजामि दृति सुरावतो गृहे। सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य

हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥१० ॥

आसव को जिस प्रकार पात्र में रखते हैं. उसी प्रकार हम सूर्य किरणों में विष को रखते ह । इस विष से

सूर्यदेव प्रभावित नहीं होते तथा हमारे लिए विषनिवारक सिद्ध होते हैं । अक्षारुद़, सूर्यदेव इस विष का निवारण

करते हैं, तथा मधुला विधा इस विष को मृत्युनिवारक अमृत बनाती है ॥१० ॥

२००१. इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम्‌ । सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे

अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥९९ ॥

कपिजली नामक चिड़िया तेरे विष को खाये । जिससे वह 3 मेरे तथा हमारे विष का भी निवारण हो और

मधुला शक्ति इस विष के लिए पृत्युनिवारक (अमत) सिद्ध हो ॥१६ ॥

२००२. त्रिः सप्त विष्पुलिड्रका विषस्य पुष्यमक्षन्‌। ताश्चिन्नु न मरन्ति नो वयं मरामारे

अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥१२ ॥

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