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हो तो सूतिका गृह पुराना, किंतु संस्कार किया

हुआ समझना चाहिये। मङ्गल बली हो तो जला

हुआ, चन्द्रमा बली हो तो नया और सूर्य बली हो

तो अधिक काष्ठसे युक्त होकर भी मजबूत नहीं

होता। बुध बली हो तो प्रसवगृह बहुत चित्रोंसे

युक्त, शुक्र बली हो तो चित्रोंसे युक्त नवीन और

मनोहर तथा गुरु बली हो तो सूतिकाका गृह सुदृढ़

समझना चाहिये॥ ८६-८७॥

लग्नमें तुला, मेष, कर्क, वृश्चिक या कुम्भ हो

तो (वास्तु भूमिमें) पूर्वभागमें; मिथुन, कन्या, धनु

या मीन हो तो उत्तर भागमें, वृष हो तो पश्चिम

भागमें तथा मकर या सिंह हो तो दक्षिण भागमें

सूतिकाका घर समझना चाहिये ॥ ८८॥

( गृहराशियोंके स्थान-- ) घरकी पूर्व आदि

दिशाओंमें मेष आदि दो-दो राशियोंकों और चारों

कोणोंमें चारों द्विस्वभाव रशिर्योको समझे। सूतिकागृहके

समान ही सूतिकाके पलंगमें भी लग्र आदि

भावोंको समझे। वहाँ ३, ६, ९ और १२ वें

भावको क्रमशः चारों पायोंमें समझना चाहिये।

चन्द्रमा और लग्रके बीचमें जितने ग्रह हों उतनी

उपसूतिकाओंकी* प्रसवकालमें उपस्थिति समझनी

चाहिये। दृश्य चक्रार्धमें (सप्तम भावसे आगे

लग्रतक) जितने ग्रह हों, उतनी उपसूतिकाओंको

घरसे बाहर समझे और अदृश्य चक्रार्धमें (लग्रसे

आगे सप्तमपर्यन्त) जितने ग्रह हों, उतनी

उपसूतिकाओंकी उपस्थिति घरके भीतर रहती है।

बहुत-से आचार्यों और मुनियोंने इससे भिन्न मत

प्रकट किया है। (अर्थात्‌ दृश्य चक्रार्धमें जितने

ग्रह हों उतनी उपसूतिकाओंकों घरके भीतर तथा

अदृश्य चक्रार्धमें जितने ग्रह हों, उतनीको घरके

संक्षिप्त नारदपुराण

बाहर कहा है) ॥२ ८९-९०॥

लग्रमे जो नवमांश हो, उसके स्वामी ग्रहके

सदृश अथवा जन्मसमये जो ग्रह सबसे बली

हो, उसके समानं शिशुका शरीर समझना चाहिये ।

इसी प्रकार चन्द्रमा जिस नवमांशमें हो उस

राशिके समान वर्ण (गौर आदि) समझना चाहिये ।

एवं द्रेष्काणवश लग्र आदि भावोंसे जातकके

मस्तक आदि अ्ग-विभाग जानना चाहिये।

यथा-लग्रमें प्रथम द्रेष्काण हो तो लग्न मस्तक,

२। १२ नेत्र, ३। ११ कान, ४। १० नाक, ५। ९

कपोल, ६। ८ हनु (दुङ्ौ) और ७ (सप्तम) भाव

मुख। द्वितीय द्रेष्काण हो तो लग्र कण्ठ, २। १२

कंधा, ३। ११ पसली, ४। १० हदय, ५। ९ भुज,

६। ८ पेट और ७ नाभि। तृतीय द्रेष्काण हो तो

लग्र वस्ति (नाभि और लिङ्गके मध्यका स्थान),

२।१२ लिङ्ग, गुदमार्ग, ३। १२ अण्डकोश, ४।१०

जाँघ, ५। ९ घुटना, ६। ८ पिण्डली और सप्तम

भाव पैर समझना चाहिये ॥ ९१-९३॥

जिस अङ्गकी राशिमें पापग्रह हो, उस अङ्गे

व्रण और यदि उसपर शुभ ग्रहकी दृष्टि हौ तौ उस

अङ्खमे चिह्न (तिल मशक आदि) समझना चाहिये ।

'पापग्रह अपनी राशि या नवमांश, अथवा स्थिर

राशिमें हो तो जन्मके साथ ही व्रण होता दै

अन्यथा उस ग्रहकौ दशा-अन्तर्दशामे आगे चलकर

व्रण होता है। शनिके स्थान वात या पत्थरके

आघातसे, मङ्गलके स्थानम विष, शस्त्र और

अग्रिसे, बुधके स्थानम पृथ्वी (मिरी) -के आघातसे,

सूर्याश्नित अङ्गे काष्ठ ओर पशुसे, क्षीण चन्द्राश्रित

अङ्खमें सीगवाले पशु ओर जलचरके आघातसे

व्रण होता है। जिस अङ्गकी राशिमें तीन पापग्रह

१. प्रसूता स्त्रौके पास रहकर उसे सहयोग देनैवालो स्तिर्योको “उपसूतिका' कहते हैं।

२. सप्तमसे आगे सग्रतक क्षितिजके ऊपर होनेसे दृश्य चक्रार्थ कहलाता है ।

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