Home
← पिछला
अगला →

उत्तरभागे द्वाविशो5ध्याथ:

जो ब्राह्मण श्राद्ध में निमन्त्रित है, फिर भी दुर्बृद्धि के

कारण यात्रा करने चला जाता है, तो उसके पितृगण एक

मास तक धूल खाने वाले होते हैं। श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मण

नौ से झगड़ा करता है उसके पितर मल खाने वाले होते

तस्मात्रिपत्रितः शरद्धे मिवतात्पा भवेदिद्वज:।

अक्रोधनः शौवपरः कर्ता चैव जितेद्धिवः॥ १२॥

निमन्नित ब्राह्मण को सावधानचित्त, ऋोधरहित और

पवित्रता से युक्त होना चाहिए। उसे सदा जितेन्द्रिय रह कर

सभो आचरणों का पालन करना चाहिए।

श्वोभूते दक्षिणां यत्वा दिकं दर्भान्समाहित:।

समूलानाहरे्रारि दक्षिणाग्रान्‌ सुनिर्मलान्‌॥ १३॥

श्राद्ध करने के लिए दूसरा दिन आ जाने पर श्राद्धकर्ता

को दक्षिण दिशा में जाना चाहिए और स्ावधानोपूर्वक वहाँ

से मूलसहित दक्षिणाग्र भाग वाले अतिशय निर्मल कुश और

जल लाना चाहिए।

दक्षिणाप्रवर्ण सिषं विषक्तं शुपलक्षणप्‌।

शुचि देशं विविक्तप्न गोमयेनोपलेषयेत्‌॥ १४॥

फिर घर आकर दक्षिण दिशा में तैयार किया हुआ

स्निग्ध, ताजा, विभाजित, एवं शुभ लक्षणों से युक्त एक

तरफ अलग पवित्र भूमि को गोबर से लीपना चाहिए।

नदीतीरेए तर स्वभूषौ चैव वा

विविक्तेषु च तुष्यन्ति दतेन पितरः सदा॥। ९५॥

नदी तट, तीर्थ स्वान, अपनो भृषि, पर्वतो के पठार और

निर्जन स्थान पर श्राद्ध करने से पितृगण सर्वकाल में प्रसन्न

रहते हैं।

पारक्य भूषिभागे तु पितृणां नव निर्वपेत्‌

स्वापिभिस्तद्वह्येत पोहाचचत्‌ क्रियते नरै:॥ १६॥

दूँ के भूभाग में पितरों के लिए श्राद्ध अर्पण नहीं

करना चाहिए। पराय भूमि पर मोहवश कुछ भौ श्राद्ध आदि

पितृकर्म किया जाता है, तो कदाचित्‌ उस भूमि का स्वामी

उसे नष्ट कर दे अथवा उसमें कोई विध्न उपस्थित कर

सकता है।

अव्यः पर्वताः पृण्यास्तीर्वान्यायतनानि था

सर्वाण्यस्वापिकान्याहुर्त क्लेतेपु परिप्रह:॥ ९७॥

किसो भो जगल. पर्वत, पवित्र तोर्थ तथा देवमन्दिरों में

जो किसी के स्वामित्व में नहीं होते, इसलिए श्राद्ध आदि

करने के लिए ये स्थान स्वोकार करने योग्य होते हैं।

तिलास्रविकिगेत्त्र सर्वतो बथवेदजम।

असुरोपहत॑ श्राद्धं तिलै: शुष्यत्यजेन तु॥ १८॥

इस प्रकार जो श्राद्ध के उपयुक्त भूषि हो, वहाँ गाय के

गोबर से शुद्धि करके चात ओर तिलो को बिखेर देना

चाहिए और बकरा बाँध देना चाहिए। क्योकि जो प्रदेश

असे दरार शद्ध किये गये हों, वे तिल फैलाने और बकरा

बाँधने से शुद्ध हो जाते हैं।

ततोऽन वहुसंस्कारं नैकव्यज्ञनमष्यगप्‌।

चोष्यं पेयं संयतं च यथाशक्ति प्रकल्ययेत्‌॥ १९॥

इसके बाद अनेक प्रकार से शुद्ध किए हुए तथा अनेक

प्रकार के व्यञ्जनो से युक्त चूसने और पौने योग्य पदार्थों का

अपनी सामर्थ्य के अनुसार संग्रह करना चाहिए।

ततो निवृत्ते मध्याद्े लुमरोममखाद्विजान

अवगप्य यवापार्ग प्रयच्छेदन्तघायनप्‌॥ २०॥

आमध्वपिति संजल्पत्रामीरने पथक्‌ पृथक्‌

तैलमध्यम्ननं स्नानं स्नानीयन्च प्रथग्विधम्‌।

पतरैरोदुप्वौ ईशादैदेययपूर्वकम्‌॥ २ १॥

मध्याह सपय नोत जाने पर जिन ब्राह्मणों ने क्षौर-कर्म

कर लिया हो तथा नख आदि काट लिए हों, उन्हे नियम-

पूर्वक दानुन आदि देना चाहिए। फिर उन्हें वैटिये' ऐसा

कहकर अन्त में सबसे अलग-अलग आशोर्वाद ले। इसके

बाद तेल कौ मालिश, स्नान आदि के लिए विभिन्न प्रकार के

सुगन्धित चूर्ण, वख और स्नानोय जल, गूलर के पात्र में

रखकर वैश्वदेव पन्न का पाठ करके ब्राह्मणों को देना

चाहिए।

ततः स्नानान्निवृतष्यः प्ुत्वाय कृताञ्जलिः।

पापाचपनीयं च संप्रयच्छेद्थाक्रमप्‌॥ २२॥

इसके वाद स्नान से निवृत्त हो जाने पर उन ब्राह्मणों के

सामने दोनों हाथ जोड़कर श्राद्धकर्ता क्रमशः पौद प्रक्षालन

के लिए जल और आचमन के लिए भी जल अर्पित करे।

ये चात्र विश्वदेवानां हविः पूर्व निमखिता:।

प्राद्भुखान्वासनान्येषा त्रिदर्भोपहतानि च॥ २३॥

जो ब्राह्मण विश्वदेव के लिए प्रतिनिधिरूप में आमन्त्रित

किये जाते हैं उनके आसन पूर्व दिशा की ओर मुख करके

बिछाने घाहिए और उन पर तोन कुशाएँ रखनी चाहिए।

]. उदुष्बरों जन्तुफलो यज्ञाज़ो हेमदुग्धक:। ( भा.प्र.नि.)

ष्ट.

← पिछला
अगला →