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* सुकर्माद्वारा ययाति और मातरिके संखादका उल्लेख «

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जाती हैं। चार महीनोंमें क्रमशः अंगुली आदि अवयव

भी उत्पन्न हो जाते है । पाँच महीनोंमें मुँह, नाक और

कन तैयार हो जाते हैं; छः महीनोंके भीतर दाँतोंके

मसूड़े, जिद्धा तथा कानेकि छिद्र प्रकट होते हैं। सात

महीनोंमें गुदा, लिङ्ग, अष्डकोष, उपस्थ तथा इारीरकी

सन्धियां प्रकट होती है । आठ मास ब्रीतते-बीतते

शरीरका प्रत्येक अवयव, केदोँसहित पूरा मस्तक तथा

अज्ञॉकी पृथक्‌-पृथक्‌ आकृतियां स्पष्ट हो जाती है ।

माताके आहारसे जो छः प्रकारका रस मिलता है,

उसके बलसे गर्भस्थ बालककी प्रतिदिन पुष्टि होती है ।

नाभिमें जो नाल बैंधा होता है, उसीके द्वारा बालककों

रसकी प्राप्ति होती रहती है। तदनन्तर झारीरका पूर्ण

विकास हो जानेपर जीवको स्मरण-दशक्ति प्राप्त होती है

तथा वह दुःख-सुखका अनुभव करने लगता है। उसे

पूर्वजन्मके किये हुए कमक, यहाँतक कि निद्रा और

शयन आदिका भो स्मरण हो आता है। वह सोचने

लगता है---'मैंने अबतक हजारों योनियोंमें अनेकों बार

चक्कर लगाया। इस समय अभी-अभो जन्म ले रहा हूँ,

मुझे पूर्वजन्मॉकी स्मृति हो आयी है; अतः इस जन्मत मै

वह कल्याणकारी कार्य करूँगा, जिससे मुझे फिर गर्भमें

न आना पड़े। पै यहाँसे निकल्नेपर संसार-बन्धनकी

निवृत्ति करनेवाले उत्तम ज्ञानको प्राप्त करनेका प्रयत

करूँगा ।'

जीव गर्भवासके महान्‌ दुःखसे पीड़ित हो कर्मबश

माताके उदरमें पड़ा-पड़ा अपने मोक्षका उपाय सोचता

रहता है। जैसे कोई पर्वतको गुफामें बंद हो जानेपर बड़े

दुःखसे समय बिताता है, उसी प्रकार देहधारी जीव

जययु (जेर) के बन्धनमें बैंधकर बहुत दुःखी होता और

बड़े कष्टसे उसमें रह पाता है। जैसे समुद्रमें गिरा हुआ

मनुष्य दुःखसे छटपटाने ता है, वैसे ही गकि जलय

अभिषिक्त जीव अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। जिस

प्रकार किसीको ल्त्रेहेके घड़ेमें बंद करके आगसे पकाया

जाय, उसी प्रकार गर्भरूपी कुम्भमें डालता हुआ जीव

जटरामिसे पकाया जाता है । आगमें तपाकर लाल-लाल

की हुई बहुत-सी सूइयोंसे निरन्तर उारीरको छेदनेपर

जितना दु-ख होता है, उससे आठगुना अधिक कष्ट

गर्भमें होता है । गर्भवाससे बढ़कर कष्ट कहीं नहीं होता ।

देहधारियोंकि लिये गर्भम रहना इतना भयंकर कष्ट है,

जिसकी कहाँ तुलना नहीं है। इस प्रकार प्राणियॉके

गर्भजनित दुःखका वर्णन किया गया। स्थावर और

जङ्गम-- सभी प्राणियोकये अपने-अपने गर्भके अनुरूप

कष्ट होता है ।

जीवको जन्मके समय गर्भवासकी अपेक्षा करोड़-

गुनी अधिक पीड़ा होती है । जन्म लेते समय यह मूच्छित

हो जाता है। उस समय उसका शरीर हड्डियोंसे युक्त

गोल आकारका होता है। स्रायुबन्धनसे बैंधा रहता है ।

रक्त, मांस और बसासे व्याप्त होता है। मल और मूत्र

आदि अपवित्र वस्तु उसमें जमा रहती है । केश, रोम

और नखोंसे युक्त तथा रोगका आश्रय होता है।

मनुष्यका यह शारीर जरा और झ्ोकसे परिपूर्ण तथा

कालके अप्नरिमय मुखमें स्थित है। इसपर काम और

क्रोधके आक्रमण होते रहते ह । यह भोगकी तृष्णासे

आतुर, विवेकशुन्य और रागद्वरेषके वदीभूत होता है।

इस देहम तीन सौ साठ हड्डियाँ तथा पाँच सौ मांस-

पेशियाँ हैं, ऐसा समझना चाहिये । यह सब ओरसे साढ़े

तीन करोड़ रोमोंद्वारा व्याप्त है तथा स्थूल-सूक्ष्म एव॑

दृश्य-अदृझयरूपसे उतनी हो नाड़ियाँ भी इसके भीतर

फैली हुई है । उन्होंके द्वारा भीतस्का अपवित्र मल पसीने

आदिके रूपमे निकलता रहता है। दारीरमें बत्तीस दाँत

और बीस नख्त होते हैं। देहके अंदर पित्त एक कुडव"

और कफ आधा आढकः होता है। वसा तीन पल,

करल पंद्रह पछ, वात अर्बुद पर, भेद दस पल,

महारक्त तीन पल, मज्जा उससे चौगुनी (बारह पल),

वीर्यं आधा कुडव, बल चौथाई कुडय, मोस -पिष्ड

१--आयुर्वेदके अनुसार ३२ तोते (६ छटाक २ तोले) का एक क्जन | २--चार सरके लगभगका एक सौल । ३ --आयुर्वैटके

अनुसार ८ त्ोलेका १ पल होता है। अन्यत्र ४ तोका एक प्छ माना गया है।

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