३३४ * संक्षिप्त ग्रह्मवैवर्तपुराण *
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तीनों काल इसका पाठ करता है, वह समस्त | और उसे सम्पूर्ण तीर्थोमें स्नान करनेका फल प्रास
व्याधियोंसे मुक्त हो जाता है। उसके अंधापन, | होता है--इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। अतः
कोढ़, दरिद्रता, रोग, शोक, भव और कलह--ये | पुत्रो! तुमलोग शीघ्र ही पुष्करमें जाओ और वहाँ
सभी विश्वेश्वर श्रीसूर्यकी कृपासे निश्चय ही नष्ट सूर्यका भजन करो। यों कहकर ब्रह्मा आनन्दपूर्वक
हो जाते हैं। जो भयंकर कुषप्ठसे दुःखी, गलित | अपने भवनको चले गये। इधर बे दोनों दैत्य
अन्ञोंवाला, नेत्रहीन, बड़े-बड़े घावोंसे युक्त, | सूर्यकी सेवा करके नौरोग हो गये। वत्स नारद!
यक्ष्मासे ग्रस्त, महान् शूलरोगसे पीड़ित अथवा | इस प्रकार मैंने तुम्हारे पूछे हुए विश्नेश्वरके
नाना प्रकारकी व्याधियोंसे युक्त हो, वह भी यदि | विप्नका कारण तथा सर्वविष्नहर सूर्यकवच और
एक मासतक हविष्यान्न भोजन करके इस स्तोत्रका | सूरयस्तवादि सुना दिये। अब तुम्हारी ओर क्या
श्रवण करे तो निश्चय ही रोगमुक्त हो जाता है |सुननेकी इच्छा है? (अध्याय १९)
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भगवान् नारायणके निवेदित पुष्यकी अवहेलनासे इन्द्रका श्रीभरष्ट होना, पुनः
वृहस्यतिके साथ ब्रह्माके पास जाना, ब्रह्माद्वारा दिये गये नारायणस्तोत्र,
कवच ओर मन्त्रके जपसे पुनः श्री प्राप्त करना
तब श्रीनारायणने कहा- नारद ! एक बार | महालक्ष्मी छायाकौ तरह सदा उसके साथ रहेगी ।
देवराज इनदर निर्जन वने, एक पुष्पोद्यानमे गये | वह ज्ञान, तेज, बुद्धि, बल--सभी बातोंमें सब
थे। वहाँ रम्भा अप्सरसे उनका समागम हुआ। देवताओंसे श्रेष्ठ और भगवान् हरिके तुल्य
तदनन्तर वे दोनों जलविहार करने लगे। इसी पराक्रमी होगा। परंतु जो पामर अहंकारवश
बीच मुनिश्रेष्ठ दुवांसा वैकुण्ठसे कैलास जाते हुए | भगवान् श्रीहरिके निवेदित इस पुष्पको मस्तकपर्
शिष्यमण्डलीसहित वहाँ आ पहुंचे । देवराज इनदरने | धारण नहीं करेगा, वह अपनी जातिवालोंके
उन्हें प्रणाम किया। मुनिने आशीर्वाद दिया। फिर | सहित श्रीभ्रष्ट हो जायगा।' इतना कहकर
भगवान् नारायणका दिया हुआ पारिजात-पुष्प | दुर्वासाजी शंकगलयको चले गये। इन्द्रने उस
इन््रको देकर मुनिन कहा--' देवराज! भगवान् | पुष्पको अपने सिरपर न धारण करके ऐरावत
नारायणके निवेदित यह पुष्प सब विप्लोंका नाश | हाथीके मस्तकपर रख दिया। इससे इन्द्र श्रीभ्रष्ट
करनेवाला है। यह जिसके मस्तकपर रहेगा, | हो गये। इन्द्रको श्रीभ्रष्ट देख रम्भा उन्हें छोड़कर
वह सर्वत्र विजय प्राप्त करेगा ओर देवताओं [स्वर्ग चली गयी । गजराज इन्द्रको नीचे गिराकर
अग्रगण्य होकर अग्रपूजाका अधिकारी होगा। | महान् अरण्यम चला गया और हथिनीके साथ
श्रैलोक्यलोचनं लोकनाथं पापप्रमोचनम् । तपसां फलदातारं दुःखदं पापिनां सदा॥
कर्मानुरूपफलदं कर्मबीजं दयानिधिम् । कर्मरूप॑ क्रियारूपमषूपं कर्मबीजकम्॥
ब्रह्मविष्णुमहेशानामंशं च त्रिगुणात्मकम् । व्याधिदं व्याधिहन्तारं शोकमोहभयापहम्।
सुखदं मोक्षदं सारं भक्तिदं॑ सर्वकामदम्॥
सर्वेश्वरं सर्वरूपं साक्षिणं सर्वकर्मणाम्।
स्तवराजमिति प्रोक्तं गुह्यादगुहयत्रं परम्॥ {गणपतिखण्ड १९। ३६--४२)