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* अध्याय १३३ *

प्रतिमा लिखे और उसके सिर, मुख, ललाट,

हृदय, गृह, पैर, पृष्ठ, बाहु और मध्यमें शत्रुका

नाम नौ बार लिखे। उस कपड़ेको मोड़कर

संग्रामके समय अपने पास रखनेसे तथा पूर्वोक्त

मन्त्र पढ़नेसे विजय होती है ॥ १६-१८ ३ ॥

अब विजय प्राप्त करनेके लिये त्रिमुखाक्षर

'ताक्ष्यचक्र 'को कहता हूँ। "क्षिप ॐ स्वाहा

तार्यात्मा शत्रुरोगविषादिनुत्‌।' इस मन्त्रको ' तार्क्ष्य-

चक्र' कहते हैं। इसके अनुष्ठानसे दुष्टौकी

बाधा, भूत-बाधा एवं ग्रह-बाधा तथा अनेक

प्रकारके रोग निवृत्त हो जाते हैं। इस 'गरुड-

मन्त्र' से जैसा कार्य चाहे, सब सिद्ध हो जाता है ।

इस मन्त्रके साधकका दर्शन करनेसे स्थावर-

जंगम, लूता तथा कृत्रिम-ये सभी विष नष्ट हो

जाते हैं॥ १९--२१३॥

पुनः महाताक्ष्यका यों ध्यान करना चाहिये-

जिनकी आकृति मनुष्यकी-सी है, जो दो पाँख

और दो भुजा धारण करते हैं, जिनकी चोंच टेढ़ी

है, जो सामर्ध्यशाली तथा हाथी और कछुएको

पकड़ रखनेवाले हैं, जिनके पंजोंमें असंख्य सर्प

उसझे हुए हैं, जो आकाशमार्गसे आ रहे हैं और

रणभूमिमें शत्रुऑंको खाते हुए नोच-नोचकर

निगल रहे हैं, कुछ शत्रु जिनकी चोंचसे मारे

हुए दीख रहे हैं, कुछ पंजोंके आघातसे चूर्ण

हो गये हैं, किन्हींका पंखोंके प्रहारसे कचूमर

निकल गया है और कुछ नष्ट होकर दसों दिशाओंमें

भाग गये हैं। इस तरह जो साधक ध्यान-

निष्ठ होगा, वह तीनों लोकॉमें अजेय होकर

रहेगा अर्थात्‌ उसपर कोई बिजय नहीं प्राप्त कर

सकता॥ २२--२५॥

अब मन्त्र-साधनसे सिद्ध होनेवाली 'पिच्छिका

क्रिया' का वर्णन करता हूं- ॐ हूं पक्षिन्‌ क्षिप,

ॐ हूं सः महाबलपराक़म सर्वसैन्यं भक्षय

भक्षय, ॐ मर्दय मर्दय, ॐ चूर्णय चूर्णय

ॐ विद्रावय विद्रावय, ॐ हूं खः, ॐ भैरवो

ज्ञापयति स्वाहा ।-- इस ' पिच्छिका-मन्त्र' को

चन्द्रग्रहणमें जप करके सिद्ध कर लेनेवाला

साधक संग्रामे सेनाके सम्मुख हाथी तथा सिंहको

भी खदेड सकता है। मन्त्रके ध्यानसे उनके

शब्दोका मर्दन कर सकता है तथा सिंहारूढ़

होकर मृग तथा बकरेके समान शत्रुओंको मार

सकता है ॥ २६- २८ ३॥

दूर रहकर केवल मन्तरोच्चारणसे शत्रुनाशका

उपाय कह रहे है-- कालरात्रि ( आश्विन शुक्लाषटमी )-

में मातृकाओंको चर प्रदान करे और श्मशानकी

भस्म, मालती- पुष्य, चामरी एवं कपासकी जड़के

द्वारा दूरसे शत्रुको सम्बोधित करे। सम्बोधित

करनेका मन्त्र निम्नलिखित है--

ॐ>, अहे हे महेन्द्रि! अहे महेन्द्रि भञ्ज हि। ॐ

जहि मसानं हि खाहि खाहि, किलि किलि, ॐ

हं फद्‌।- इस भङ्गविद्याका जप करके दूरसे ही

शब्द करनेसे, अपराजिता और धतुरेका रस

मिलाकर तिलक करनेसे शत्रुका विनाश होता

है॥ २९-३२ ६॥

ॐ किलि किलि विकिलि इच्छाकिलि भूतहनि

शङ्धिनि, उमे दण्डहस्ते रौद्रि माहे शवरि, उल्कामुखि

ज्वालामुखि शङ्कुकर्णे शुष्कजङ्घे अलम्बुषे हर

हर, सर्वदुष्टान्‌ खन खन, ॐ यन्मात्रिरीक्षयेद्‌ देवि

तोस्तान्‌ मोहय, ॐ रुद्रस्य इदये स्थिता रौद्रि

सौम्येन भावेन आत्मरक्षां ततः कुरु स्वाहा ।- इस

सर्वकार्यार्थसाधक मन्त्रको भोजपत्रपर वृत्ताकार

लिखकर बाहरमे मातृकाओंको लिखे। इस

विद्याको पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा इन्दरने हाथ

आदिमे धारण किया था तथा इस विद्याद्वारा

बृहस्पतिने देवासुर- संग्राममे देवताओंकी रक्षा की

थी ॥ ३३--३५॥

(अब रक्षायन्त्रका वर्णन करते हैं -- ) रक्षारूपिणी

नारसिंही, शक्तिरूपा भैरवौ तथा त्रैलोक्यमोहिनी

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