Home
← पिछला
अगला →

ड३८

##७######२##############*₹३६३३%%४*#*०+७०२+७४७# # # ४

कह सुनायीं । वे तीन रात्रितक वहाँ ठहरे रहे । इसके बाद

उन्होंने राजाके साथ वासि जानेका विचार किया । उनका

अभिप्राय जानकर सुमदने शीघ्र ही अपने पुत्रको राज्यपर

अभिषिक्त कर दिया तथा उन महाबुद्धिमान्‌ नरेशने

शत्रु्रके सेवकॉकों, बहुत-से वख, रत्र और नाना

प्रकारके धन दिये। तत्पश्चात्‌ शत्रु़ने धनुष धारण किये

हुए राजा सुमदको साथ केकर अपने बहुच मन्त्रियों,

पैदल योद्धाओं, हाथियों और अच्छे घोड़े जुते हुए ] |

अनेकों रथोकि साथ वहाँसे यात्रा आरम्भ की।

श्रीरघुनाथजीके प्रतापका आश्रय लेकर वे हैंसते-हैंसते

मार्ग तय करने लगे । पयोष्णी नदीके तीरपर पहुँचकर

उन्होंने अपनी चाल तेज कर दी तथा शत्रुऑपर प्रहार

करनेवाले समस्त योद्धा भी पीछे-पीछे उनका साथ देने

लगे। वै तपस्वी ऋषियोंके भाँति-भाँतिके आश्रम देखते

तथा वहाँ श्रीरघुनाथजीके गुणगान सुनते हुए यात्रा कर

रहे थे। उस समय उन्हें चारों ओर मुनियोंकी यह

कल्याणमयी वाणी सुनायी पड़ती थी--'यह यज्ञका

अश्च चला जा रहा है, जो श्रीहरिके अंडावतार

श्रीझत्रुघ्नजीके द्वार सब ओरसे सुरक्षित है। भगवान्वा

अनुसरण करनेवाले वानर तथा भगवद्भक्त भी उसकी

रक्षा कर रहे हैं।' जिनकी चित्तवृत्तियाँ भक्तिसे निरन्तर

प्रभावित रहती हैं, उन महर्षियोंकी पूर्वोक्त बातें सुनकर

जब्रुघ्नजीकों बड़ा सन्तोष हुआ । आगे जाकर उन्होंने एक

विशुद्ध आश्रम देखा, जो निरन्तर होनेवाली वेदोंकी

ध्वनेसि उसको श्रवण करनेवाले मनुष्योंका सारा

अमङ्गल नष्ट किये देता था। वहाँका सम्पूर्ण आकाश

अग्रिहोत्रके समय दी जानेवाली आहतिके धूमसे पवित्र

हो गया था। श्रेष्ठ मुनियोंके द्वारा स्थापित किये हुए

अनेकों यज्ञसम्बन्धी यूप उस आश्रमको सुशोभित कर

रहे थे। वहाँ सिंह भी पालन करनेयोग्य गौओंकी रक्षा

करते थे। चूहे अपने रहनेके लिये बिल नहीं खोदते थे;

क्योंकि वहाँ उन्हें बिल्लियोंसे भय नहीं था। साँप सदा

मोरों और नेवल्मरेंके साथ खेलते रहते थे। हाथी और

सिंह एक-दूसरेके मित्र होकर उस आश्रमपर निवास

करते थे। मृग वहाँ प्रेमपूर्वक चरते रहते थे, उन्हें

* अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम्‌ +

[ संक्षिप्त पद्मपुराण

/#+###################*2%*%%****००००७++*#+#####४####%###%००००५४००७

किसीसे भय नहीं था। गौओंके धन घड़ोंके समान

दिखायी देते थे। उनका विग्रह नन्दिनीकी भाँति सम्पूर्ण

कामनाओंको पूर्ण करनेवाल्त्र था और ये अपने खुरोंसे

उठी हुई घूलके द्वारा वहि भूमिको पवित्र करती थीं।

हाथोंमें समिधा धारण करनेवाले श्रेष्ठ मुनिवरोंने यहाँकी

भूमिको धार्मिक क्रियाओंका अनुष्ठान करनेके योग्य बना

रखा था। उस आश्रमको देखकर रात्रुत्रजीने सब

बातोंको जाननेवाले श्रीराममनत्री सुमतिसे पूछा।

अन्रुघप्नजी बोले--सुमते ! यह सामने किस

मुनिका आश्रम शोभा पा रहा है? यहाँ सन जन्तु

आपसका वैर-भाव छोड़कर एक ही साथ निवास करते

हैं तथा यह मुनियोंकी मण्डलीसे भी भय-पूरा दिखायी

देता है। मैं मुनिकी वार्ता सर्गा तथा उनका वृत्तान्त

श्रवण करके अपनेको पवित्र करूँगा।

महात्मा छात्रुघप्ोके ये उत्तम क्चन सुनकर परम

मेधावी श्रीरघुनाथजीके मन्त्री सुमतिने कहा--

“सुमित्रानन्दन ! इसे महर्षि च्यवनका आश्रम समझों।

यह बड़े-बड़े तपस्वियोसे सुदोभित तथा बैरशून्य

जन्तुओंसे भय हुआ है। मुनियोंकी पत्नियाँ भी यहां

← पिछला
अगला →