Home
← पिछला
अगला →

डेंडक # रत] [आू ६

3 ह है है है है कै के है कै के के # है है के है है अे के है कै औ कै #ै है है कै कै कै औ कै ै है औ # औ # # औ # औ कै # औ # के # # # # # के औ के े कै के # # औ के # #औऔ के # # औ कै के

तब वे उनके बीचमें ही प्रकट हो गये। उनके शरीरकी

प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये

हों ॥ १ ॥ भगवानकी उस प्रभासे सभी देवताओंकी आँखें

चौंधिया गयीं। वे भगवान्को तो क्या--आकाश,

दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीरको भी न देख सके ॥ २ ॥

केवल भगवान्‌ शङ्कर और ब्रह्माजीने उस छविका दर्शन

किया। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। मरकतमणि (पन्ने) के

समान खच्छ श्यामल शरीर, कमलके भीतरी भागके

समान सुकुमार नेत्रम लाल-लाल डोरियां ओर चमकते

हुए सुनहले रंगका रेशमी पीताम्बर ! सर्वाड्रसुन्दर शरीरके

रोम-रोमसे प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुषके समान टेढ़ो

भोहि और बड़ा ही सुन्दर मुख। सिरपर महामणिमय

किरोट और भुजाओमें बाजूबंद। कानोंके झलकते हुए

कुप्डलॉकी चमक पड़नेसे कपोल और भी सुन्दर हो उठते

थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमरमें

करधनीकी लड़ियाँ, हाथोंमें कंगन, गलेमें हार और

चरणोमें नूपुर शोभावमान थे। वक्षःस्थलपर लक्ष्मी और

गलेमें कौसतुभमणि तथा वनमाला सुशोभित थीं॥ ३-६ ॥

भगवान्‌ निज अख् सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान्‌ होकर

उनको सेवा कर रहे थे । सभी देवताओंने पृथ्वीपर्‌ गिरकर

साष्टाङ्गं प्रणाम किया फिर सारे देवताओंकों साथ ले

शङ्करजी तथा क्रह्माजी परम पुरुष भगवान्‌कों स्तुति

करने लगे ॥ ७ ॥

ब्रह्माजीने कहा--जो जन्म, स्थिति और प्रलयसे

कोई सम्बन्ध नह रखते, जो प्राकृत गुणोंसे रहित एवं

मोक्षस्वरूप परमानन्दके महान्‌ समुद्र हैं, जो सूक्ष्ससे भी

सुक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त है--उन परम

ऐश्वर्यशशालो प्रभुको हमलोग बार-बार नमस्कार करते

हैं॥ ८ ॥ पुरुषोत्तम ! अपना कल्याण चाहनेवाले साधक

वेदोक्त एवं पाञ्चरग्रोक्त विधिसे आपके इसी स्वरूपकी

उपासना करते है । मुझे भी रचनेवाले प्रभो ! आपके इस

विश्वमय स्वरूपे मुझे समस्त देवगणोकि सहित तीनों

लोक दिखायी दे रहे है ॥ ९ ॥ आपमें ही पहले यह जगत्‌

लीन धा, मध्यमे भी यह आपमें ही स्थित है और अन्ते

भौ यह पुनः आपमें ही लोन हो जायगा । आप स्वयं

कार्य -कारणसे परे परम सखवतन्त रै । आप ही इस जगतके

आदि, अन्त ओर मध्य हैं--वैसे ही जैसे घड़ेका आदि,

मध्य और अन्त मिट्टी है ॥ १० ॥ आप अपने हौ आश्रय

रहनेवाली अपनी मायासे इस संसारकी रचना करते हैं

ओर इसमें फिरसे प्रवेश करके अन्तरवामीके रूपमे

विराजमान होते है । इसोलिये विवेकी और शाखज्ञ पुरुष

बड़ी साबधानीसे अपने मनको एकार करके इन गुणोंकी,

विषयोंकी भीड़में भी आपके निर्गुण स्वरूपका ही

साक्षात्कार करते हैं॥११॥ जैसे मनुष्य युक्तिके द्वारा

लकड़ीसे आग, गौसे अमृतके समान दूध, पृथ्वीसे अन्न

तथा जल और व्यापारसे अपनी आजीविका प्राप्त कर

लेते हैं--बैसे ही विवेकी पुरुष भी अपनी शुद्ध बुद्धिसे

भक्तियोग, ज्ञानयोग आदिके द्वारा आपको इन विषर्योमिं ही

प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूतिके अनुसार आपका

वर्णन भी करते हैं॥ १२॥ कमलनाभ ! जिस प्रकार

दावाग्निसि झुलसता हुआ हाथी गङ्गाजले डुबकी

लगाकर सुख और शान्तिका अनुभव करने लगता है,

वैसे ही आपके आविर्भात्रसे हमलोग परम सुखी और

शान्त हो गये हैं। स्वामी ! हमलोग बहुत दिनोंसे आपके

दर्शनोंके लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे ॥ १३ ॥ आप

ही हमारे बाहर और भीतरके आत्मा हैं। हम सब

लोकपाल जिस उद्देश्यसे आपके चरणोंकी शरणमे आये

हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी

है, अतः इस विषयमे हमलोग आपसे और क्या निवेदन

करें ॥ १४ ॥ प्रभो ! मै, शङ्करजी, अन्य देवता, ऋषि और

दक्ष आदि प्रजापति--सब-के-सब अग्निसे अलग हुई

चिनगारीकी तरह आपके ही अंश हैं और अपनेको आपसे

अलग मानते हैं। ऐसी स्थितिमें प्रभो हमलोग समझ ही

क्या सकते हैं। ब्राह्मण और देवताओंके कल्याणके लिये

जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही

दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये॥ १५॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--ब्रद्म आदि देवताओंनि

इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक लीं और

सब बड़ी सावधानीके साथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये ।

उनकी स्तुति सुनकर और उसी भकार उनके हृदयकी

बात जानकर भगवान्‌ मेघके समान गण्भीर वाणीस

बोले॥ १६॥ परीक्षित्‌ ! समस्त देवताओंके तथा

जगत्‌के एकमात्र स्वामी भगवान्‌ अकेले ही उनका सतर

कार्य करनेमें समर्थ थे, फिर भी समुद्र-मन्थन आदि

← पिछला
अगला →