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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् *
[ संक्षिप्त गरुडपुराणाडु
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भूख-प्याससे पीड़ित रहकर यह प्रेत-जीवन बिता रहे हैं।
हम लोगोंकी वाणी उसी पापसे विनष्ट हुई है, शरीर
कान्तिहीन हो गया है, हम संज्ञाहीन और विकृते चित्तवाले
हो गये हैं। हे तात! हमें दिशाओं तथा विदिशाओंका कोई
ज्ञान नहीं है। पाप-कर्मसे पिशाच बने हुए हम मूढ प्राणी
कहाँ जा रहे हैं, इसका भी ज्ञान हमें नहीं है। हम लोगोंके
न माता हैं और न पिता हैं। अपने कर्मोंके फलस्वरूप,
अत्यन्त दुःखदायौ यह प्रेतयोनि हम सभीको प्राप्त हुई है।
है ब्रह्म! आपके दर्शनसे हम लोग अत्यधिक प्रसन हैं।
आप मुहूर्तभर रुकें। आपसे हम अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त
प्रारम्भसे कहेंगे। उनमेंसे एक प्रेतने कहा-
है विप्रदेव! मेरा नाम पर्युषिते है, यह दूसरा सूचीमुख
है, तीसरा शीघ्रा, चौथा रोधक और पाँचवाँ लेखक है।
श्राह्मणने कहा--हे प्रेत! प्राणीकों कर्मफलानुसार
प्रेतयोनि मिलती है यह तो ठीक बात है, पर अपने जो
नाम तुम बताते हो, उसके प्राप्त होनेका क्या कारण है?
प्रेतताजने कहा--हे द्विजश्रेष्ठ! मैंने सदैव सुस्वादु
भोजन किया और ब्राह्मणको बासी अन दिया है, इस
कारण मेरा नाम पर्युषित (बासी) है। भूखे ब्राह्मणकी
याचनाकों सुनकर यह शीघ्र हौ यहाँसे हट जाता था,
इसलिये यह शीघ्रग नामका प्रेत हुआ। अन्नादिकी आकांक्षासे
इसने बहुत-से ब्राह्मणोंकों पीड़ित किया था, इस कारण यह
सूचौमुख नामक प्रेत हों गया। इसने पोष्यवर्ग एवं
ब्राह्मणॉंकों दिये बिना अकेले हौ मिष्टाल खाया था,
इसलिये इसको रोधक कहा गया है। यह कुछ माँगनेपर
मौन धारण करके पृथ्वी कुरेदने लगता था, अत: उस
कर्मफलके अनुसार यह लेखक कहलाया।
हे ब्राह्मण! कर्मभावसे हो प्रेतत्व और इस प्रकारके
नामकी प्राप्ति हुई है। यह लेखक मेषमुख, रोधक पर्वताकार
मुखवाला, शौघ्रग पशुकी तरह मुखवाला और सूचक सुईके
समान मुखयाला है, इसके बेढ़ंगे रूपको देखें। हे नाथ ! हम
अत्यन्त दु:खित हैं। मायावी रूप बनाकर हम लोग पृथ्वीपर
विचरण करते हैं। हम सभौ अपने ही कर्मसे विकृत
सभीमें रान उत्पन्न हो गया है, आपकी जिस बातकों
सुननेकी अभिरुचि हो, वह आप पूछें, उसे मैं आपको
अतानेके लिये तैयार हूँ।
ख्राह्मणने कहा--हे प्रेतशज! पृथ्वोपर जो भी जीव
जते हैं, वे सब आहारसे ही जीवित रहते हैं। यथार्थरूपमें
तुम लोगोकि भी आहारको सुननेकी मेरी इच्छा है।
प्रेतोने कहा--हे द्विजराज! यदि आपको श्रद्धा हमारे
आहारको जाननेकौ है तो सावधान हो करके आप सुनें।
हम सभीका आहार समस्त प्राणियोंके लिये निन्दनीय
है, जिसको सुनकर आप बार-बार निन्दा करेंगे। प्राणियोंके
शरीरसे निकले हुए कफ, मूत्र और पुरीषादि मल एवं अन्य
प्रकारसे उच्छिष्टं भोजन प्रेतोंका आहार है। जो घर अपवित्र
रहते हैं, जिनकी घरेलू सामग्रियाँ इधर-उधर बिखरी रहती
हैं, जिन धर्म प्रसूतादिके कारण मलिनता बनी रहती है,
यहाँपर प्रेत भोजन करते ह । जिस घरमे सत्य, शौच और
संयम नहीं होता, पतित एवं दस्युजनोंका साथ है, उसी
चरमें प्रेत भोजन करते हैं। जो घर भूतादिक बलि,
देवमन्त्रोच्वार, अग्निहोत्र, स्वाध्याय तथा ब्रतपालनसे हीन
है, प्रेत उसमें ही भोजन करते है। जो घर लखा एवं
मर्यादासे रहित है, जिसका स्वामी स्त्रीसे जीत लिया गया
है, जहाँ माता-पिता और गुरुजनोकौ पूजा नहीं होती है,
प्रेत वहाँ ही भोजन करते है । जिस घरमे नित्य लोभ, क्रोध,
निद्रा, शोक, भय, मद, आलस्य तथा कलह- ये सब दुर्गुण
विद्यमान रहते हैं, वहाँ प्रेत भोजन करते हँ । हे दृदृव्रत
तपोनिधि विप्रदेव! हम सब इस प्रेतभावसे दुःखित हैं,
जिससे प्रेतयोनि प्राप्त हो वह हमें बतायें। प्राणीकौ
नित्य मृत्यु हो वह अच्छा है पर उसे कभी भी प्रेतयोनि
न प्राप्त हो।
ब्राह्मणने कहा--नित्य उपवास रखकर कृच्छर एवं
चान्रायणत्रतर्मे लगा हुआ तथा अनेक प्रकारसे अन्य ब्रतोंसे
पवित्र मनुष्य प्रेत नहीं होता है। जो व्यक्ति जागरणसहित
एकादशीत्रत करता है और अन्य सत्कर्मोंसे अपनेको पवित्र
रखता है, वह प्रेत नहीं होता है। जो प्राणी अश्वमेधादिक
आकारवाले, लम्बे ओठवाले, विकृत मुखबाले और यृहद् यज्ञॉको सम्पन्न करके नाना प्रकारके दान देता है तथा
शरीरवाले तथा भयावह हो गये हैं। हे विप्र! यह सव मैंने
आपसे प्रेतत्वका कारण बता दिया है। आपके दर्शनसे हम
क्रौडा, उद्यान, वापी एवं जलाशयका निर्माता है, ब्राह्मणकी
कन्याओंका यथाशक्ति विवाह कराता है, विद्यादान और