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अशुचिप्रस्तरे सुप्तः कीटदैज्ञादिभिस्तथा ।
भक्ष्यम्ाणोऽपि नैवेषां समर्थो विनिवारणे ॥ १९
जन्मदुःखान्यनेकानि जन्मनोऽनन्तराणि च ।
ब्ारभावे यदाभरोति हयाधिभौतादिकानि च ॥ २०
अज्ञानतपसाऽऽच्छक्ने मृढान्तःकरणो नरः ।
न जानाति कुतः कोऽहं क्राहं गन्ता किमात्मनः ॥ २१
केन बन्धेन बद्धोऽहं कारणं किमकारणम् ।
कि कार्यं किमकार्यं वा कि वाच्यं किं च नोच्यते ॥ २२
को धर्मः कश्च वाधर्मः कस्पिन्वर्तेऽथ वा कथम् ।
किं कर्तव्यमकर्तव्यं किं वा किं गुणदोषवत् ॥ २३
एवं. पश्ुसमैर्मु|कैरज्ञानप्रभव॑ महत् ।
अवाप्यते नरैर्दःखं शिक्षोदरपरायणै: ॥ २४
अज्ञान॑ तामसो भाव: कार्यारिम्भप्रवृत्तय: ।
अज्ञानिनां प्रवर्तन्ते कर्मत्त्रेपास्ततो द्विज ॥ २५
नरकं कर्मणां ल्ोपात्फलमाहू्मनीषिणः ।
तस्मादज्ञानिनां दुःखमिह चामुत्र चोत्तमम् ॥ २६
जराजर्जरदेहश्च शिधथितावयवः पुमान् ।
विगलच्छीर्णदशनो वलिस्त्रायुशिरावृतः ॥ २७
दूरघ्रणष्टनयनो व्योपान्तर्गततारकः ।
नासाविवरनिर्यातलेपपुञ्श्चलद्पुः ॥ २८
भ्रकरीभूतसर्वास्थर्नतपृष्ठास्थिसंहतिः ।
उत्स्रजठराघ्रित्वाद्ल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥ २९
कुच्छुचडक्रमणोत्थानशयनासनचेष्टित: ।
मन्दीभवच्छरतरनतरसस्रवल्लालावित्प्रननः ॥ ३०
अनायत्तस्समस्तैश्च करणौ्मरणोन्पुखः ।
तत्क्षणोऽप्यनुभूतानामस्मर्ताखिलवस्तुनाम् ॥ ३९
श्रीविष्णुपुगण
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तथा दुग्धपानादि आहार भी दूसरेहीकी इच्छसे प्राप्त करता
है॥ १८॥ अपवित्र (मल-मृत्रादिमें सने हुए) बिस्तरपर
पड़ा रहता है, उस समय कीड़े और अष आदि उसे काटते
हैं तथापि वह उन्हें दूर करनेमें भी समर्थ नहीं होता ॥ १९ ॥
इस प्रकार जन्मके समय और उसके अनन्तर
वाल्यावस्थामें जीव आधिभौतिकादि अनेक दुःख भोगता
है॥ २० ॥ अज्ञानरूप अन्धकारसे आवृत होकर
पुरुष यह नहीं जानता कि 'मैं कहाँसे आया हूँ ? कीन है?
कहाँ जाऊँगा ? तथा मेरा स्वरूप क्या है ?॥ २१॥ मैं
किस बन्धनसे वैषा हूँ? इस बन्शनका क्या कारण है ?
अथवा यह अकारण ही प्राप्त हुआ है ? मुझे क्या करना
चाहिये और क्या न करना चाहिये ? तथा च्या कहना
चाहिये और क्या न कहना चाहिये ? ॥ २२ ॥ धर्म क्या
है ? अधर्म क्या है ? किस अवस्थामें मुझे किस प्रकार
रहना चाहिये ? क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है ?
अथवा क्या गुणमय और क्या दोषमय है ?' ॥ २३ ॥ इस
प्रकार पशुके समान विवेकशून्य शिश्रोदरपरायण पुरुष
अज्ञानजनित मह्मन् दुःख भोगते हैं ॥ २४ ॥
हे द्विज ! अज्ञान तामसिक भाव (विकार) है, अतः
अज्ञानी पुरुषोंकी (तामसिक) कमेकि आरम्भमें प्रवृत्ति
होती है; इससे वैदिक कर्मोंका स्प्रेप हो जाता है ॥ २५ ॥
सनीषिजनोनि कर्म-ल्थेपका फल नरक बतलाया है;
इसलिये अज्ञानी पुरुषोको इहलोकं और परव्प्रेक दोनों
जगह अत्यन्त ही दुःख भोगना पड़ता है ॥ २६ ॥ दारीरके
जरा-जर्जरित हो जानेपर पुरुषके अद्भ-प्रत्यज्ञ शिधिल हो
जाते हैं, उसके दाँत पुने होकर उखड़ जाते हैं और शरीर
झुर्रियों तथा नस-नाड़ियोंसे आवृत हो जाता है॥ २७॥
उसकी दृष्टि दूरस्थ विषयके प्रहण करनेमें असमर्थ हो
जाती है, नेत्रोंके तारे गोलकॉमें घुस जाते हैं, नासिकाके
स्श्रॉमेंसे बहुत-से रोम याहर निकल आते हैं और शरीर
काँपने लगता हैं॥२८॥ उसकी समस्त हड्डियाँ
दिखल्तयी देने छगती हैं, मेरुदण्ड झुक जाता है तथा
जठगराम्निके मन्द पड़ जानेसे उसके आहार ओर पुरुषार्थ
कम हो जाते हैं॥२९॥ उस समय उसकी चलना-
फिरना, उठना-बैठना और सोना आदि सभी चेष्टाएँ बड़ी
कठिनतासे होती हैं, उसके श्रोत्र और नेत्रोंकी दाक्ति मन्द
पड़ जाती है तथा लार बहते रहनेसे उसका मुख मलिन हो
जाता है ॥ ३० ॥ अपनी सप्ूर्ण इन्द्रियां स्वाधीन न रहनेके
कारण वह सब प्रकार मरणासत्र हो जाता है तथा
[ स्मरणशक्तिके क्षीण हो जानेसे ] बह उसी समय