४५४ ] [ मत्स्य पुराणं
भाँति वामन देव की कमण्डलुके सहित बत्त मान होनेकी कल्पना करना
करनी चाहिये । उन वामन देव प्रभू के दाहिने हाथ में एक छोटा सा
छत्र देवे ओर उनका मुख दीमता से परिव्याप्त ही कल्पित करे । उनके
पाश्वं भाग में श्द्भार के धारण करने वाले राजा बलि को प्रदर्शित
करना चाहिए । वामन देव को इस दत्यो के राजा बलि का बन्धन
करते हुए ही दर्शित करना चाहिए तथा उनके समीप में ही गरुड़ को
भी दिखलावे ।३६-३८। वहीं पर मत्स्य रूपी मात्स्य एवं कूर्म की
आकृति से युक्त कूमेंका भी न्यास करना चाहिए । इस प्रकार के स्वरूप
से सुसम्पन्त भगवान् नारायण हरिका स्वरूप वहाँ पर करना आवश्यक
है ।३६। चारों मुखों से युक्त कमण्डलु कं धारण करने वाले ब्रह्माजी
को वहाँ पर दिखलाना चाहिये । किसी स्थल पर उन ब्रह्मा को हंसपर
समारूढ़ और कहीं पर कमल के आसन पर विराजमान दिखलावे ।*४०
ब्रह्मा का वर्ण कमल की आभा के सहश-चार भुजाओं से युक्त-शुभ
नेत्रों वाला-बाँये हाथ में कमण्डलू लिये हुये तथा दाहिने हाथ में सत्र,
आरण करने वाला दिखलाना चाहिए ।४१। उसी भाँति वाम हस्त में
दण्ड को धारण करने वाला और स्रूब का धारी प्रदर्शित करे । सभी
ओर मुनिगण--देवगण और गन्धर्वों के द्वारा स्तूयमान होने वाला श्री
वामन देव को दिखाना चाहिये ।४२।
कुर्वाणमिव लोकांस्त्रीन् शुक्लाम्बरधरं विभुम् ।
मृगचर्मंधरड-चापि दिध्ययज्ञोपवीतिनस् ।४३
आज्यस्थालि न्यसेत्पाएवे वेदांश्च चतुरः पुनः ।
वामपाश्वेऽस्य सावित्रीं दक्षिणे च च सरस्वतीम् ।४४
अग्रं च ऋषयस्तद्वत्कार्य्याः पैतामहे पदे ।
कार्तिकेयं प्रवक्ष्यामि तरुणादित्यसंभ्रभम् ।४५
कमलोदरवर्णाभं कुमारं सुकुमारकम् ।
दण्डकंश्ची रकेयु क्त मयूरवरवाहनम् ।४६