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पातालखण्ड ] „ शात़ुघ्रका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवनका सुकन्यासे ब्याह +

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निवास करती हैं। महामुनि च्यवन वे ही हैं, जिन्होंने

मनुपुत्र हार्यातिके महान्‌ यज्ञमें इन्द्रका मान भङ्ग किया

और अश्विनीकुमारोंको यज्ञका भाग दिया था।

शन्रुघ्नने पूछा--मन्त्रिवर ! महर्षि च्यवनने कब

अश्विनीकुमारोंको देवताओंकी पडृक्तिमें बिठाकर उन्हें

यज्ञका भाग अर्पण किया था ? तथा देवराज इन्द्रने उस

महान्‌ यज्ञमें क्या किया धा ?

सुमतिने कहा-- सुमित्रानन्दन ! ब्रह्माजीके वंङामें

महर्षि भृगु बड़े विख्यात महात्मा हुए है । एक दिन

सन्ध्याके समय समिधा लानेके लिये वे आश्रमसे दूर

चले गये थे । उसी समय दमन नामका एक महाबली

राक्षस उनके यज्ञका नाश करनेके स्यि आया और उच्च

स्वरसे अत्यन्त भयद्भुर वचन बोला--'कहाँ है वह

अधम मुनि और कहाँ है उसकी पापरहित पत्नी ?' वह

रोषमें भरकर जब बारम्बार इस प्रकार कहने लगा तो

अग्निदेवताने अपने ऊपर राक्षससे भय उपस्थित जानकर

मुनिकी पत्नीको उसे दिखा दिया । वह सती-साध्वी नारी

गर्भवती थी। राक्षसने उसे पकड़ लिया । बेचारी अबला

कुररीकी भति विलाप करने लगी--*महर्षि भृगु ! रक्षा

करो, पतिदेव ! बचाओ, प्राणनाथ ! तपोनिधे !! मेरी

रक्षा करो।' इस प्रकार वह आर्तभावसे पुकार रही थी, (थ

तथापि राक्षस उसे लेकर आश्रमसे बाहर चला गया और

दुष्टताभरी बातोंसे महात्मा भृगुकी उस पतित्रता पत्नीको

दुष्टात्मा ! तू सर्वभक्षी हो जा (पवित्र, अपवित्र--सभी

यस्तु ओका आहार कर) ।' यह दाप सुनकर अग्रिदेवको

बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने मुनिके चरण पकड़ लिये और

कहा--प्रभो ! तुम दयाके सागर हो । महामते ! मुझपर

अनुग्रह करों। धार्मिकशिरोमणे ¦ मैंने झूठ बोलनेके

भयसे उस राक्षसको आपकी पत्नीका पता बता दिया था,

इसलिये मुझपर कृपा करो ।'

अग्निकी प्रार्थना सुनकर तपस्वी मुनि दयासे द्रवित

हो गये और उनपर अनुग्रह करते हुए इस प्रकार

बोले--'अग्ने ! तुम सर्वभक्षी होकर भी पवित्र ही

रहोगे ।' तत्पश्चात्‌ परम मङ्गरमय विप्रवर भुगुने खान

आदिसे पवित्र हो हाथमे कुरा लेकर गर्भसे गिरे हुए

अपने पुत्रका जातकर्म आदि संस्कार किया । उस समय

सम्पूर्ण तपस्वियेनि गर्भसे च्युत होनेके कारण उस

बालकका नाम च्यवन रख दिया । भृगु-कुमार च्यवन

शु्ठपक्षकी प्रतिपदाके चत्द्रमाकी भाँति धीरे-धीरे बढ़ने

लरगे। कुछ बड़े हो जानेपर ये तपस्या करनेके लिये

जगत्को पवित्र करनेवाल्ी नर्मदा नदीके तटपर गये।

वहाँ पहुँचकर उन्होंने दस हजार वर्षोंतक तपस्या की ।

अपमानित करने छगा। उस समय महान्‌ भयसे त्रत कि

होकर यह गर्भ मुनिपत्रीके पेटसे गिर गया । उस नवजात

शिशुके नेत्र प्रज्वलित हो रहे थे, मानो सतीके शरीरसे

अभ्निदेव ही प्रकट हुए हों । उसने राक्षसकी ओर देखकर ( पे

कहा--'ओ दुष्ट ! अब तू यहाँसे न जा, अभी जलकर

भस्म हो जा । सतीका स्पर्श करनेके कारण तेरा कल्याण

न होगा ।' बालकके इतना कहते ही वह राक्षस गिर पड़ा नर 4

ओर तुरत जलकर राका ढेर हो गया । तब माता अपने

बच्चेको गोदमें लेकर उदास मनसे आश्रमपर आयी । ,

महर्षि भृगुको जब मालूम हुआ कि यह सब अभिदेवकी

ही करतूत है तो ये क्रोधसे व्याकुल हो उठे और शाप ; त) 24 73

देते हुए बोरे--'दात्रुको घरका भेद बतानेवाले

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