पाताल्खण्ड ] » शातुघ्बका राजा सुमदकों साथ लेकर आगे जाना और च्यवनका सुकन्यासे ब्याह +
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और उन्होंने सब ल्त्रेगॉंको आज्ञा दी--'धन-धान्यसे
सम्पन्न जो मेरे आत्मीय जन हैं, वे सब स्त्रेग अपने-अपने
घरोपर तोरण आदि माङ्गलिक वस्तुओंकी रचना करें ।' इन
सब बातोंके लिये आज्ञा देकर स्वयं राजा सुमद अपने
पुत्र-पौत्र और रानी आदि समस्त परिवारको साथ केकर
डाब्ुप्तके पास गये। शात्रून पुष्कल आदि योद्धाओं तथा
मन्त्रियोंके साथ देखा, वीर राजा सुमद आ रहे हैं। राजाने
आकर बड़ी प्रसन्नताके साथ जतन्रुप्नको प्रणाम किया और
कहा--'प्रभो आज मैं धन्य और कृतार्थं हो गया।
आपने यहाँ दर्शन देकर मेरा बड़ा सत्कार किया। मैं
चिरकालसे इस अश्वके आगमनकी प्रतीक्षा कर रहा था ।
माता कामाक्षा देवीने पूर्वकालमें जिस बातके लिये मुझसे
कहा था, वह आज और इस समय पूरी हुई है। श्रीरामके
छोटे भाई महाराज झत्रुघ्नजी ! अब चलकर मेरी नगरीको
देखिये, यहाँके मनुष्योको कृतार्थं कीजिये तथा मेरे समस्त
कुलको पवित्र बनाइये।' ऐसा कहकर राजाने चन्द्रमाके
समान कान्तिवाले श्वेत गजराजपर शत्रुर और महावीर
पुष्कलको चढ़ाया तथा पीछे स्वयै भी सवार हए । फिर
महाराज सुमदकी आज्ञासे भेरी ओर पणव आदि बाजे
बजने लगे, वीणा आदिकी मधुर ध्वनि होने लगी तथा इन
समस्त वाद्योकी तुमुर ध्वनि चारों ओर व्याप्त हो गयी ।
धीरे-धीरे नगरमे आकर सब लोगोंने शत्रुघ्तजीका
अभिनन्दन किया--उनकी वृद्धिके लिये झुभकामना
व
कक मैक कोको मैक 9 9१ १११११११११४.४.४४४४.
प्रकट की तथा वे वीरोंसे सुशोभित हो अपने अश्वरल्को
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साथ लिये राज-मन्दिरमें उतरे । उस समय सारा राजभवन
तोरण आदिसे सजाया गया था तथा स्वयै राजा सुमद
झत्रुन्नजीको आगे करके चल रहे चे । महकमे पहुँचकर
उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अर्ध्य आदिके द्वारा शत्रुेघ्॒जीका
पूजन किया और अपना सब कुछ भगवान् श्रीरामकी
सेवामें अर्पण कर दिया।
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जन्नु्लका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर
पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना--च्यवनका सुकन्यासे व्याह
होषजी कहते दै-- तदनन्तर नरश्रेष्ठ राजा सुमदने
श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कथा सुननेके लिये उत्सुक होकर
स्वागत-सत्कारसे सन्तुष्ट हुए दात्रु्रजीसे वार्तालाप
आरम्भ किया ।
सुमद बोले-- महामते! सम्पूर्ण लोकॉंके
शिरोमणि, भक्तोंकी रक्षके लिये अवतार ग्रहण
करनेवाले तथा मुझपर निरन्तर अनुग्रह रखनेवाले
भगवान् श्रीराम अयोध्यामे सुखपूर्वक तो विराज रहे हैं
न? ये सब लोग धन्य है, जो सदा आनन्दमप्र होकर
अपने नेत्र-पुटोकिं द्वारा श्रीरघुनाथजीके मुखारविन्दका
मकरन्द पान करते रहे हैं। नरश्रेष्ठ! अब मेरी
कुल-परम्परा तथा राज्य-भूमि आदि सब वस्तुत पूर्ण
सफल हो गयीं। दयासे द्रवित होनेवाली माता
कामाक्षा देवीनि पूर्वकालमें मुझपर बड़ी कृपा की थी।
राजाओमिं श्रेष्ठ वीर सुमदके ऐसा कहनेपर शतरु्ने
श्रीरघुनाथजीके गुणोंकों प्रकट करनेवाली सब कथाएँ