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* झतरुद्वसंहिता

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होनेके अभिप्रायसे गर्भके रूपकी समृद्धि

करनेवाला सीमन्त संस्कार सम्पन्न कराया।

तदुषरान्त ताराओंके अनुकूल होनेपर जब

यूहस्पति केन्द्रवर्ती हुए और शुभ अहोंका योग

आया, तब शुभ ल्मे भगवान्‌ हकर,

जिनके मुखकी कान्ति पूर्णिपाके चन्द्रमाके

सपान है तथा जो अरिष्टिरूपी दीपककों

बुझानेबाले, समस्त अरिटप्रॉके विनाइक

और भूः, भुवः, स्वः-- तीनों ल्लेकॉके

निखासियोको सत्र तरहसे सुख देनेवाल्ले हैं,

उस झुक्तिष्मतीके गर्भसे पुत्ररूपमें प्रकट हुए ।

उस्र समय गन्धको बहन करनेवाले वायुके

वाहन मेघ दिल्लारूपी बधुओंके मुखपर

चल्र-से बन गये अर्थात्‌ चारों ओर काली

घटा उमड़ आयी। चे घनघोर बादल उत्तम

गन्धवाक्ते पुष्पसमूहोंकी वर्षा करने लगे।

देवताओंकी दुन्दुधियाँ बजने लगीं। चारों

ओर दिख्लाएँ निर्मल हो गयीं । प्राणियोंके

मनोंके साथ-साथ सरिताओंका जल निर्मल

हो गया। प्राणियॉंकी वाणी सर्वधा सम्पूर्ण

कल्याणी और प्रियभाषिणी हो उठी।

सप्पूर्ण प्रसिद्ध ऋषि-मुनि तथा देवता, यक्ष,

किनर, विद्याधर आदि मङ्गल द्रव्य ले-लेकर

पारे । स्वयं ब्रह्माजीने नभ्रतापूर्वक उसका

जातकर्म-संस्कार किया और उस बाल्कके

रूप तथा वेदका विचार करके यह निश्चय

किया कि इसका नाम गृहपति ह्यना चाहिये ।

फिर ग्यारहतवें दिन उन्होंने नामकरणकी

विधिके अनुसार बेदमन्त्रॉका उच्चारण करते

हुए उसका “गृहपत्ति' ऐसा नामकरण किया ।

तत्पश्चात्‌ सक्षके पितामह ब्रह्मा चारों वेदों

कथित आज्ञीवदात्मक मन्त्रौहारा उसका

अभिनन्दन करके हंसपर आरूढ हो अपने

ल्लेकको चले गये । तदुपरान्त शंकर भी

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स्वैकिकी गतिका आश्रय छते उस बारक्ककी

उचित रक्षाका विधान करके अपने बराहनपर

चढ़कर अपने धामकों पधार गये। इसी

श्रकार श्रीहरिने भी अपने छोककी राह ली ।

इस प्रकार सभी देवता, ऋषि-मुनि आदि भी

अन्‍्नंसा करते हुए अपने-अपने स्थानको

पश्चार गये। तदनन्तर ब्राह्मण देवताने

यथासमय सब संस्कार करते हुए बालूककों

चेदाध्ययन कराया । तत्पश्चात्‌ नवँ वषं

आनेपर माता-पितिकी सेवार्मे तत्पर

रहनेवाले विश्चानर-नन्दन गृहपतिको देखनेके

लिये वहाँ नारदजी पधारे। खालकने माता-

पितासहित नारदजीको प्रणाम क्रिया । फिर

नारदजीने यात््ककी हस्तरेखा, जिड्भा, तालु

आदि देखकर कहा--'सुनि विश्वानर ! मैं

तुम्हारे पुत्रके लक्षणोंका वर्णन करता है, तुम

आदरपूर्वक उसे श्रवण करो । तुम्हारा यह पुत्र

परम भाग्यवान्‌ है, इसके सम्पूर्ण अज्ञोंके

लक्षण शुभ हैं। किंतु इसके सर्वगुणसम्पन्न

शुभलक्षणोंसे समन्वित और

चन्द्रमाके समान सम्पूर्ण निर्मल कल्ठाओंसे

सुशोभित होनेपर भी विधाता ही इसकी रक्षा

करें। इसलिये सब तरहके उपायोंद्वारा इस

शिशुकी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि

विधाताके विपरीत होनेपर गुण भी दोष हो

जाता है। मुझे शङ्का है कि इसके वारहवे

जर्षमें इसपर किजली अथवा अश्निह्ाारा विन्त

आयेगा ।' यो कहकर नारदजी जैसे आये थे,

वैसे ही देवतलोकको चमे गये।

सनत्कुमारजी ! नारदजीका कथन

सुनकर पत्नीसहित विश्वानरने समझ लिया

कि यह तो बड़ा भयंकर वज़्पात हुआ । फिर

ले “हाय ! मैं सारा गया' यों कहकर छाती

पीटने छगे और पुत्रशोकसे व्याकुल होकर

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