३८० | [ भत्स्व पुराण
को प्राप्त हो गये थे । अन्य लोग अपने सुखों से फनौंका वमन कर रहे
थे और कु छ तो विषम दशा को ही प्राप्त हो गये थे उसके श्वास से
हो बहुत से निर्दग्ध होगये थे । उसके पश्चात् विष्णु, इन्द्र और दानव
सबके सब दग्ध अद्भार के तुल्य हो गये थे जो भूत परम भव्य दिव्य
रूप वाले थे इसके अनन्तर भगवान् विष्णु सुरात्मक उससे बड़े ही
सम्भ्रम से बोले-श्री भगवान् ने कहा--आप एक अन्तक की प्रख्या
वाले कौन हैं हम सबको आपका परमप्रिय क्या कर्म करना चाहिए ।
जिससे देव को प्रसन्न करें । यह समस्त आप हमको बतलाइए । वह
कालाग्नि को सदुग भगवात विष्णु कं इस वचन का श्रवण करके वह
कालकूट विष जो मृत्तिमान् था भिन्न दुन्दुभि कं समान ध्वनि वाला
यह बोला ।१४-२९॥।
अहं हि कालकूटाख्यो विषोऽम्बुधिसमुद्भवः ।
चदा तीज्नतरामर्षे: परस्परवर्धेषिभि: ।२१
सुरासुरेविमथितो दुग्धाम्भोनिधिश्द्धुत: ।
सम्भूतो5हं तदा सबि हन्तु देवाच् सदानवान् ।२२
सर्वानिह हनिष्यामि क्षणमात्रेण देहिनः ।
मामां प्रसत वे सर्वे यात बा गिरिणान्तिकम् ।२३
श्र. त्वेतद्वचनं तस्य ततो भीताः सुरासुराः ।
ब्रह्मविष्णु पुरस्कृत्य गतास्ते शङ्कुरान्तिकम् ।२४
निवेदितास्ततो द्वा:स्थेस्ते गणेश: सुरासुराः ।
अनुज्ञाताः शिवेनाथविविशुगिरिशान्तिकम् ।२५
मन्दरस्य गृहांहेमीं मुक्तामालाविभूषिताम् ।
सुस्वच्छमणिसोपानावेदुय्येस्तम्ममण्डिताम् ।२६
तत्र देवासुरे: सर्वे जनुभिधेरणीगतः ।
ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा इदं स्तोत्रैमुदाहलेस ।२७
कालकूट ने कहा--मैं कालक,ट नाम वाला अम्बुधिसे समत्पन्न होने