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श्दै८ | | ज्रह्याण्ड पुराण

।१॥ अपने पिताजी के जीवन का हरण और उनके शिर को काटकर ले

जाने का सभाचार भी उन्होने जानकर यह भी उनको ज्ञात हो गया था कि

उनकी माताश्री का मरण पिताजी की मृत्यु हो जाने ही से शोकोद्रेक वश

हो गयी.थी ।२। वह महाबाहु को बड़ा भारी शोक और असह्य दुःख हुआ

था | इससे वे रास बहुत अधिक विलाप करने लग गये थे। यद्यपि अकृत

व्रणको भी परशुराम के ही समान दुःख हुआ था किन्तु फिर भी उसने

राम को बहुत कुछ समाश्वासन दिया था ।३। वीयं की सामथ्यं के सूचक

शास्त्रों में निदिष्ट किये गए हैतुओं के द्वारा और युक्तियों से तथा लोक में

होने वाले अनेक दृष्टान्तो के द्वारा परशुराम जी के उस महान शोक को

अकृत व्रण ने शमित कर दिया था ।४॥ उस अकृत ब्रण के द्वारा सान्त्वना

दिए गए परशुराम ने धेयं का अवलम्बन लिया था क्योकि वह्‌ बहुत अधिक

मेधावी थे । इकके अनन्तर परशुरामजी अपने सखा अकृत व्रण के साथ

अपने भाइयों के देखने की इच्छा से अपने ग्रह की ओर चल दिये थे ।५।

वहाँ पर भार्गव ने जाकर अभिवादन किया था और इन सबको परम

दुःखित देखकर परशुरामजी को भी अत्यधिक दुःख हुआ था। उन सबके

साथ में पुनः उस शोक का नवीनीकरण हो गया था और परम शोक में

मग्न होकर वह वहाँ तीन दिन तक स्थित रहे थे ।६। इसके अनन्तर अपने

पिता श्री के निधन का स्मरण करते हुए उनको महान क्रोध उत्पन्न हो

गया था ओर तुरन्त ही वह सम्पूर्ण लोक के संहार कर देने में समर्थ हो

गये थे ।७।

मातुरर्थे कतां पूर्व प्रतिजां सत्यसंगरः ।

दृढी चकार हृदये सवंक्षत्रवधोद्यतः ॥।८

क्षत्रवंश्यानशेषेण हत्वा तद हलोहितेः ।

करिष्ये तर्पणं पित्रोरिति निश्चित्य भार्गवः ६

श्रातु.णां चेव स्वेषामाख्यायात्मस मीहितम्‌ ।

प्रययौ तदनुज्ञातः कृत्वां संस्थां पितुः क्रियाम्‌ ॥१०

अकृतव्रणसंयुक्तः प्राप्य माहिष्मतीं ततः ।

तद्बाह्योपवने स्थित्वा सस्मार स महोदरम्‌ ।। ११

स तस्मे रथचापाद्यं सहसा स्वस मन्वितम्‌ ।

प्रषयामासर रामाय सर्वेसेंहननानिं च ।१२

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