काण्ड २० सुक्त १०४ ८९
ह स्तोताओ ! विस्तृत-विकराल ज्वालाओं वाले अग्निदेव की स्तुति करो । उद्गातागण उन प्रसिद्ध अग्निदेव
से घन तथा श्रेष्ठ प्रकाशयुक्त आवास-प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते हैं ॥१ ॥
५६७७. अग्न आ याह्मग्निभिरहोतारं त्वा वृणीमहे ।
आ त्वामनक्तु प्रयता हविष्मती यजिष्ठं बर्हिरासदे ॥२ ॥
हे अग्निदेव ! आप देवों को बुलाने दाले है, हमारी प्रार्थना सुनकर अपनी अग्नियों ( विशिष्ट शक्तियों )
सहित यहाँ पारे । हे पूज्य अग्निदेव ! अध्वर्यु के द्वारा प्रदत्त आसन पर आपके प्रतिष्ठित होने पर, हम आपका
पूजन करें ॥२ ॥
५६७८. अच्छा हि त्वा सहसः सूनो अङ्धिरः सुचश्चरन्त्यध्वरे ।
ऊजो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्नं यज्ञेषु पूर्व्यम् ॥३॥
बल से उत्पन्न सर्वत्र गमनशील हे अग्निदेव ! आप तक हविष्यान्न पहुँचाने के लिए यह हवि पात्र
सक्रिय है । शक्ति का हास रोकने वाले अभीष्टदाता, तेजस्वी, ज्वालाओं से युक्त आपकी हम यज्ञस्थल पर
प्रार्थना करते हैं ॥२ ॥
[ सूक्त-१०४ |]
[ ऋषि- मेध्यातिधि, ३-४ नृमेध । देवता- इद्र । छन्द- प्रगाथ ।|
५६७९. इमा उ त्वा पुरूवसो गिरो वर्धन्तु या मम।
पावकवर्णाः.शुचयो विपश्चितोऽभि स्तोमैरनूषत ॥१ ॥
हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! हमारी स्तुत्ियां आपकी कीर्ति को बढ़ाएँ । अग्नि के समान प्रखर पवित्रात्मा ओर
विद्वान् साधक स्तोत्रों द्वारा आपकी प्रार्थना करते हैं ॥१ ॥
५६८०. अयं सहस्रमृषिभिः सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे ।
सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये ॥२ ॥
ये इद्धदेव हजारों ऋषियों के स्तुतिबल को पाकर प्रख्यात और समुद्र की तरह विस्तृत हुए हैं। इनकी
सत्यनिष्ठा और शक्ति प्रसिद्ध है । यज्ञ में स्तोत्रगान करते हुए इनका सम्मान किया जाता है ॥२ ॥
५६८१. आ नो विश्वासु हव्य इन्द्र: समत्सु भूषतु ।
उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहा परमज्या ऋचीषः ॥३ ॥
संग्राम में रक्षा के लिए बुलाने योग्य, वृत्रहन्ता, धनुष की श्रेष्ठ प्रत्यंचा के समान, उत्तम मंत्रों से स्तुत्य हे
इन्द्रदेव ! हमारे ( तीनों ) सवनों एवं स्तोत्रों को आप सुशोभित करें ॥३ ॥
५६८२. त्वं दाता प्रथमो राधसामस्यसि सत्य ईशानकृत् ।
तुविद्युम्नस्य युज्या वृणीमहे पुत्रस्य शवसो महः ॥४ ॥
हे इनद्देव ! आप सर्वप्रथम धनदाता है । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले है । आपसे हम पराक्रमो एवं श्रेष्ठ संतानों
क्री कमना करते हैं ॥४ ॥