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आचारकाण्ड ] * आत्मज्ञाननिरूपण * ३६१

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भत्युत ये तो योगसिद्धिमें विलम्ब करनेवाली हैं। ये सब

विधियां साधनके विस्तार मात्र हैँ । शिशुपालने स्मरणाध्यासके

प्रभावसे सिद्धि-लाभ किया था। योगाभ्यास करनेवाले योगीजन

आत्मासे आत्माको देखते हैं। योगीजन सभी प्राणियोंमें

करुणाभाव, विषयोकि प्रति विद्वेष एवं शिश्न ओर उदरकी

परायणताका परित्याग करते हुए मुक्ति प्राप्त करते हैँ । जब

योगी मनुष्य इन्द्रियोंसे इन्दरियोके विषयका अनुभव नहीं

करता, तब काषटकौ भाँति सुख, दुःखके अनुभवसे अतीत

होकर ब्रह्ममें लीन हो जाता है अर्थात्‌ मुक्त हो जाता है।

मेधावी साधक सभी प्रकारके वर्णभेद, सभी प्रकारके

ऐश्वर्यभेद एवं सभी अशुभ तथा पापोंको ध्यानाग्निके द्वारा

भस्मसात्‌ कर परमगतिको प्राप्त करता है। जैसे कफसे काहमें

अर्ण करनेसे अग्निका दर्शन होता है, वैसे हौ ध्यानसे

परमात्मस्वरूप हरिका दर्शन किया जा सकता है। जब ब्रह्म

और परमात्मस्वरूप हरिका दर्शन किया जाता है, जब ब्रह्म

और आत्माके एकत्वका ज्ञान होता है तभी योगका उत्कर्ष

जानना चाहिये। किसी भी बाह्य उपायसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं

हो सकती, मुक्तिकी प्राप्ति आभ्यन्तरिक यम-नियम आदि

उपायोंके द्वारा ही होती है। सांख्यज्ञान, योगाभ्यास और

वेदान्तादिके श्रवणसे जो आत्माका प्रत्यक्ष होता है, उसे मुक्ति

कहा जाता है। मुक्ति होनेपर अनात्मामें आत्माका और

असत्‌-पदार्थमें सत्‌-तत्त्वका दर्शन होता है। (अध्याय २३५)

च कय~

आत्मज्ञाननिरूपण

श्रीभगवान्‌ बोले--हे नारद! अब मैं आत्मज्ञनका

तात्त्विक वर्णन करूँगा, सुनिये।

अद्वैत तत्व ही सांख्य है ओर उसमें एकचितता ही

योग है । जो अदत तत्त्व-योगसे सम्पन्न हैं, वे भवबन्धनसे

मुक्त हो जाते हैं। उद्धत तत््वका ज्ञान होनेपर अतीत,

वर्तमान और भविष्यके सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। ज्ञाती

व्यक्ति सद्विचाररूपी कुल्हाड़ीके द्वारा संसाररूपौ वृक्षको

काटकर ज्ञान-वैरग्यरूपी तीर्थके द्वारा वैष्णव पद प्राप्त

करता है। जाग्रत्‌, स्वप और सुपुप्ति--यह तीन प्रकारकी

अवस्था ही माया है जो संसारका मूल है। यह माया

जबतक रहती है, तबतक संसार हौ सत्यमें अवगत होता

है। वास्तव्मे शाश्रत द्रत तत्वमें हौ सब कुछ प्रविष्ट है।

अट्ठैत तत्त्व ही प्रब्रह्म है। यह परब्रह्म नाम-रूप तथा

क्रियासे रहित है। यह ब्रह्म हौ इस जगत्‌कौ सृष्टि कर स्वयं

उसीमें प्रविष्ट हो जाता है।

“मैं मायातीत चित्पुरुषकों जानता हूँ और मैं भी

आत्मस्वरूप हूँ।' इस प्रकारका ज्ञान ही मुक्तिका मार्ग है।

मोक्ष-लाभके लिये इससे अतिरिक्त अन्य कोई भी उपाय

नहीं है।' श्रवण, मनन और ध्यान--ये सभौ ज्ञानके साधन

हैं। यह, दान, तपस्या, वेदाध्ययन और तीर्थसेवापात्रसे

मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती है। मुक्ति किसो मतसे दान-

ध्यानसे तथा किसीके मतसे पूजादि क्से होती है। “कर्म

करो' और “कर्मका त्याग करो ये दोनों वचन वेद

मिलते है । निष्कामभावसे यज्ञादि कर्म मुक्तिके लिये होते

हैं, क्योंकि निष्कामभावसे अनुष्टितं यज्ञादि अन्तःकरणकौ

शुद्धिके साधन हैं। ज्ञान प्राप्त होनेपर एक हौ जन्मने मुक्ति

प्रात्त हो जाती है। द्वैत (भेद)-भाव रखनेपर तो मुक्ति

सम्भव ही नहीं है । कुयोगी भी मुक्ति प्राप्त नही कर सकते।

किसी कारण योगभ्रष्ट होनेपर योगिरयोके कुलमें उत्पत्ति हो

सकती है । ऐसी स्थितिमें मुक्ति सम्भव है।

कर्मोंस भवबन्धन और ज्ञान होनेसे जीवकी संसारसे

मुक्ति हो जाती है, इसलिये आत्मज्ञानका आश्रय करना

चाहिये। जो आत्मज्ञानसे भिन्न ज्ञान हैं, उनको भी अज्ञान

कहा जाता है। जब हृदयमें स्थित सभी कामनाएँ समाप्त

हो जाती हैं, तब जीव जीवनकालमें हौ अमरत्वकी प्राप्ति

कर लेता है, इसमें संशय नहीं है-

यदा सर्वे विमुच्यन्ते कामा येऽस्य हदि स्थिताः ।

तदाऽमृतत्यमाप्नौति जीवश्नेव न संशयः॥

(२४६।१२)

व्यापक होनेसे ब्रह्म कैसे जाता है, कौन जाता है और

कहाँ जाता है? ऐसे प्रश्नोकि लिये कोई अवसर ही नहीं

है। अनन्त होनेके कारण उसका कोई देश नह है; अतः

किसी भी रूपमे उसको गति नहीं हो सकती । परब्रह्म

अद्रय है, अतः उससे भिन्न कुछ भी नर्हौ है। वह

१-वेदाहमेतं पुरुषं चिदरपं तमसः परम्‌ । सोऽहमस्मीति मोक्षाय नान्य: पन्था विमुक्तये ॥ (२३६। ६)

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