३६२ * पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् * [ संक्षिप्त गरुडपुराणाङ्क
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ज्ञानस्वरूप है, अतः उसमें जड़ता कैसे हो सकती है?
वस्तुतः ब्रह्म आकाशके समान है, इसलिये उसकी गति,
अगति और स्थिति आदिका विचार कैसे हो सकता है?
आग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्था मायाके द्वारा कल्पित
हैं अर्धात् मिष्या है।
वस्तुमात्रका सार ब्रह्म हौ है। तेजोरूप ब्रह्मको एक
अखण्ड परम पुण्यरूपं समझना चाहिये। जैसे अपनी
आत्मा सबको प्रिय है, वैसे ही ब्रह्म सबको प्रिय है क्योंकि
आत्मा हो ब्रह्म है। हे महामुने! सभी तत्त्वज्ञ ज्ञानको सर्वोच्च
मानते हैं, इसलिये चित्तका आलम्बन बोधस्वरूप आत्मा ही
है। यह आत्मविज्ञान है। यह पूर्ण है। शाश्वत है। जागते,
सोते तथा सुषुप्तावस्थामें प्राप्त होनेवाला सुख पूर्ण सुखरूप
ब्रह्मका ही एक क्षुद्र अंश समझना चाहिये। जैसे एक
मृण्मय वस्तुका (ज्ञान होनेपर) समस्त मृण्मय पदार्थ जान
लिया जाता है,
सर्वत्र व्याप्त शाश्वत तत्त्व ज्ञानस्वरूप ब्रह्म यदि सदा
सर्वत्र सभीके हदये विद्यमान नहीं है तो विस्मृ अर्थका
स्मरण नहँ होना चाहिये पर होता है । ऐसी स्थितिमें यह
स्मरण किसको होता है, निश्चित ही चेतन तत्त्वको ही होता
है। इसे हो आत्मा, ब्रह्म, परमात्मा आदिके रूपमे स्वीकार
किया गया है। चेतनतत्त्वकी सत्ता- अणु, अशरौरीं अथवा
परम व्यापक तत्त्व- किसी भी रूपमें स्वीकार किया जाय,
पर स्वीकार करना हो है; अन्यथा प्राणीकों सुख-दुःखका
अनुभव नहीं हो सकेगा। चेतनत्व प्राणिमात्रके हदये
साक्षीरूपसे सदा विद्यमान है, इसीलिये यह उसकौ प्रत्येक
चेष्टाकों जानता रहता है और इस जानकारीका फल यह है
कि प्राणीके शुभाशुभ कर्मका फल यथासमय मिलता रहता
है। यह ब्रह्मतत्त्व सत्य, ज्ञान एवं आनन्दरूप है तथा अनन्त
है। सत्य ज्ञानसे पृथक् नहीं होता, अनन्ततासे पृथक् आनन्द
नहीं है। वास्तवमें प्रत्येक जीव सत्य, आनन्द एवं
ज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही है। स्वयंको ब्रह्मरूपमें जानकर जीव
अपने वास्तविक स्वरूप सर्वज्ञताको प्राप्त कर लेता है। जैसे
एक हैममणि (पारस)-से अनन्त लौहराशि हेममय हो
जाती है, उसी प्रकार ईश (ब्रह्म)-का ज्ञान होनेपर ज्ञानीके
द्वारा सकल विश्व जान लिया जाता है, जैसे अन्धकारदोषके
कारण रस्सी अपने सत्यस्वरूपमें नहीं दिखायी देती, वैसे
हौ व्यामोहसे प्रस्त जीवको आत्माका दर्शन नहीं होता। जिस
प्रकार प्रत्यक्ष होनेपर भी द्रव्य दृष्टि-दोषके कारण सही नहीं
दिखायी देता है, अपितु वह कुरूप प्रतीत होता है। उसी
प्रकार आकाशकी सरूपताके कारण बह आत्मतत्त्व असत्य
एवं पृथक् प्रतीत होता है। जैसे रखुमें सर्पका और सौपमें
रजतका आभास होता है और मृगमरीचिकामें जलका आभास
होता है, उसी प्रकार विष्णुर्मे जगतूकौ प्रतीति होती है।
जैसे कोई द्विज ग्रहाविष्ट होनेके कारण “मैं शुद्र हूँ" ऐसा
मानता है और ग्रह-बाधा नष्ट होनेके पश्चात् वही व्यक्ति
पुनः ध्यान करता हुआ अपनेको ब्राह्मण मानता है, वैसे ही
मायासे आच्छन्न जीव यह 'मैं ही हूँ' ऐसा स्वीकार करता
है। मायारूपी अज्ञानके समाप्त हो जानेपर पुनः वह अपने
स्वरूपमें “मैं ही ब्रह्म हूँ' ऐसा मान लेता है। जैसे ग्रहके
जाश हो जानेपर उसको माननेवाला प्राणी उसे क्रूर ग्रहके
रूपमे देखता है, वैसे ही अपने स्वरूपका दर्शन होनेपर मायाके
अभावमें उसकी मायिक पदार्थोंसे विरक्ति हो जाती है।
जैसे संसार-चक्र अनादि है, पैसे हौ उसके मूल
भगवान्कौ माया भी अनादि है। इस मायाके सत् और
असत् दो रूप हैं। व्यवहार-कालमें वह सत् और परमार्थतः
असत् है। मायाके कारण ही अज परमात्मा भी अपनी
मायाके आवेशसे जगतूके रूपमें परिणत होता है। मायाकी
इच्छासे ही पति-पत्रौ आदिके रूपमें यह सम्पूर्णं जगत्
कल्पित है। अट्टाईस तत्त्वॉका यह त्रिगुणात्मक जगत् और
चौरासी लाख योनियोंके नर और नारियोंकी आकृति
मायाके द्वारा हो रचित है। त्रिगुणात्मक अड्डाईस तत्त्वोंके
रूपमें मायाके द्वारा हौ खण्डशः विश्चकौ सृष्टि होतो है।
वस्तुतः नाम, रूप और क्रिया आदि जगतूकी सत्ता मध्यमें
हौ है आदि और अन्तम नहीं। इसलिये व्यवहार-कालमें
सत्य प्रतीत होनेपर भी परमार्थतः यह मिथ्या है। जिस
प्रकार स्वप्नावस्थामें रथ आदिकौ सत्ता प्रतीत होती है, किंतु
वहाँ उनका अस्तित्व रहता नहीं है। उसी प्रकार जाग्रत्
अवस्थे भी वे समृद्धियाँ उस प्राणीके पास नहीं रहतीं।
परमार्थतः जैसे जाग्रत्- अवस्था और स्वप्न-अवस्थाके
पदार्थोका भावाभाव प्रतीत होता है, वैसे हौ मायिक पदार्थ
भी व्यवहार और परमार्थे सत्-असत् है । स्वप्न तथा
जागृतिकी स्थितिमें ऐसा ही इस परम ब्रह्मका अस्तित्व है,
किंतु सुषुप्तावस्थामें प्राणीका चित्त निश्चल होता है। सभी
झानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियेंके साथ मन उस आत्माके साथ