Home
← पिछला
अगला →

+ अध्याय १७५ +

३६३

है" ॥ ३८-४३॥

(व्रती मनुष्य ब्रतके स्वामी देवतासे इस

प्रकार प्रार्थना करे-) ' व्रतपते! मैं कोति, संतान

विद्या आदि, सौभाग्य, आरोग्य, अभिवृद्धि, निर्मलता

तथा भोग एवं मोक्षके लिये इस ब्रतका अनुष्ठान

करता हूं । यह श्रेष्ठ ब्रत मैंने आपके समक्ष ग्रहण

किया है । जगत्पते! आपके प्रसादसे इसमें निर्विघ्न

सिद्धि प्राप्त हो। संतोके पालक ! इस श्रेष्ठ ब्रतकों

ग्रहण करनेके पश्चात्‌ यदि इसको पूर्ति हुए विना

हौ मेरौ मृत्यु हो जाय तो भी आपके प्रसन्न होनेसे

बह अवश्य ही पूर्ण हो जाय । केशव! आप

व्रतस्वरूप हैं, संसारकी उत्पत्तिके स्थान एवं

जगत्‌को कल्याण प्रदान कएनेवाले हँ; मैं सम्पूर्ण

मनोरथोंकी सिद्धिके लिये इस मण्डलम आपका

आवाहन करता हूँ। आप मेरे समीप उपस्थित हो ।

मनके द्वारा प्रस्तुत किये हुए पञ्चगव्य, पञ्चामृत

तथा उत्तम जलके द्वारा मैं भक्तिपूर्वक आपको

स्नान कराता हूँ। आप मेरे पापोंके नाशक हों ।

अर्ध्यपते ! गन्ध, पुष्प ओर जलसे युक्त उत्तम

अर्घ्य एवं पाद्य ग्रहण कौजिये, आचमन कोजिये

तथा मुझे सदा अर्घं (सम्मान) पानके योग्य

यनाइये । वस्त्रपते! ब्रतोके स्वामी! यह पवित्र

वस्त्र ग्रहण कीजिये और मुझे सदा सुन्दर वस्त्र

एवं आभूषणों आदिसे आच्छादित किये रहिये ।

गन्धस्वरूप परमात्मन्‌! यह परम निर्मल उत्तम

सुगन्धसे युक्त चन्दन लीजिये तथा मुझे पापकी

दुर्गन्ध्से रहित और पुण्यकी सुगन्धसे युक्त

कीजिये। भगवन्‌! यह पुष्प लीजिये और मुझे

सदा फल-फूल आदिसे परिपूर्ण बनाइये। यह

फूलकी निर्मल सुगन्ध आयु तथा आरोग्यकी

वृद्धि करनेवाली हो। संतोंके स्वामी! गुग्गुल ओर

घी मिलाये हुए इस दशाङ्ग धूपको ग्रहण कीजिये ।

धूपद्वारा पूजित परमेश्वर! आप मुझे उत्तम धूपकी

सुगन्धसे सम्पन्न कौजिये। दीपस्वरूप देव ! सबको

प्रकाशित करनेवाले इस प्रकाशपूर्ण दीपको, जिसको

शिखा ऊपरकी ओर उठ रही है, ग्रहण कीजिये

और मुझे भी प्रकाशयुक्त एवं ऊर्ध्वगति (उन्नतिशील

एवं ऊपरके लोकोंमें जानेबाला) बनाइये। अन्न

आदि उत्तम वस्तुओंके अधीश्वर ! इस अन आदि

नैवेद्यको ग्रहण कौजिये और मुझे ऐसा बनाइये,

जिससे मैं अन्न आदि वैभवसे सम्पन्न, अन्नदाता

एवं सर्वस्वदान करनेबाला हो सकूँ। प्रभो ! ब्रतके

द्वारा आराध्य देव! मैंने मन्त्र, विधि तथा भक्तिके

बिना ही जो आपका पूजन किया है, वह आपको

कृपासे परिपूर्ण -सफल हो जाय । आप मुझे धर्म,

धन, सौभाग्य, गुण, संतति, कीर्ति, विद्या, आयु,

स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान कर । व्रतपते! प्रभो ! आप

इस समय मेरे द्वारा की हुई इस पूजाको स्वीकार

करके पुनः यहाँ पधारने और वरदान देनेके लिये

अपने स्थानको जायं ' ॥ ४४--५८॥

सब प्रकारके ब्रतोमें व्रतधारौ पुरुषको उचित

है कि वह स्नान करके व्रत- सम्बन्धी देबताकी

स्वर्णमयी प्रतिमाका यथाशक्ति पूजन करे तथा

रातको भूमिपर सोये। ब्रतके अन्तम जप, होम

और दान सामान्य कर्तव्य है। साथ ही अपनी

शक्तिके अनुसार चौबीस, बारह, पाँच, तीन

अथवा एक ब्राह्मणक एवं गुरुजनोंकी पूजा करके

उन्हें भोजन करावे ओर यथाशक्ति सबको पृथक्‌-

पृथक्‌ गौ, सुवर्ण आदि; खड़ाऊँ, जूता, जलपात्र,

अन्नपात्र, पुत्तिका, छत्र, आसन, शय्या, दो वस्त्र

ओर कलश आदि वस्तुं दक्षिणाम दे । इस प्रकार

यहाँ “व्रत” कौ परिभाषा बतायी गयी है ॥५९--६२॥

इस ग्रकार आदि आण्तेय महापरणर्मे "व्रत- परिभाषाका वर्णन” नामक

एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १७५ ॥

नन

* अष्टौ तान्यत्रतप्नाति आपो मूल॑ फलं पयः । हि््राह्मणकाप्या च गुरोर्वचनमौषधम्‌ ॥ ( अगिन १७५ । ४३)

← पिछला
अगला →