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अ“ १९ ]

वित्तरेकय मथुरों कृष्ण रामं चाह स यादव: ।

पद्भ्यां यातं महावीरौ रथेनैको विज्ञाम्यहम्‌ ॥ १०

गन्तव्य वसुदेवस्य नो भवद्भ्यां तथा गृहम्‌ ।

युवयोहिं कृते वृद्धस्स कंसेन निरस्यते ॥ ९१

श्रीपराशर उवाच

इत्युक्त्वा प्रविवेशाथ सोऽक्रूरो मथुरा पुरीम्‌ ।

प्रविष्टौ रामकृष्णौ च राजमार्गमुपागतौ ॥ १२

सरीधिनरैश्च सानन्द लोचनैरभिवीक्षितौ ।

जग्पतुर्लीलिया वीरौ पत्तौ बालगजाविव ॥ १३

भ्रममाणौ ततो दुष्टा रजकं रङ्गकारकम्‌ ।

अयाचेतां सुरूपाणि वासांसि सुचिराणि तौ ॥ ९४

कंसस्य रजकः सोऽथ प्रसादारूढनिस्मयः ।

बहन्याक्षेपवाक्यानि प्राहोच्चै रामकेशवौ ॥ १५

ततस्तलघप्रहारेण कृष्णस्तस्य दुरात्मनः ।

पातयामास रोषेण रजकस्य रिरो भुवि ॥ १६

हत्वादाय च वाणि पीतनीलाग्बरौ ततः ।

कृष्णरामौ मुदा युक्तो मालाकारगृह गतौ ॥ ९७

विकासिनेत्रयुगलो मालाकारोऽतिविस्मितः ।

एतौ कस्य सुतौ यातौ पैत्रेयाचिन्तयत्तदा ॥ १८

पीतनीलाप्बरधरौ तौ दृषटातिमनोहरौ ।

स तर्कयामास तदा भुवं देवावुपागतौ ॥ १९

विकासिमुखपश्माध्यां ताभ्यां पुष्पाणि याचितः ।

भवं विष्टभ्य हस्ताभ्यां पस्य शिरसा महीम्‌ ॥ २०

प्रसादपरमौ नाथौ मम गेहमुपागतौ ।

धन्योऽहमर्चयिष्यामीत्याह तौ पाल्यजीवनः ॥ २९

ततः प्रहष्टटदनस्तयो: पुष्पाणि कामतः ।

चारूण्येतान्यथैतानि प्रददौ स प्रलोभयन्‌॥ २२

पुनः पुनः प्रणप्योभौ मालाकारो नरोत्तमौ ।

ददौ पुष्पाणि चारूणि गन्धवन्त्यमलानि च ॥ २३

परालाकाराय कृष्णोऽपि प्रसन्नः प्रददौ वरान्‌ ।

श्रीस्लां मत्संश्रया भद्रन कटाचित्यजिष्यति ॥ २४

पञ्चम अंश

३६९

गये ॥ ९॥ मधथुरापुरीको देखकर अक्रूरने राम और

कृष्णसे कहा--“'हे वीरवरो ! अब मैं अकेला ही रथसे

जाऊँगा, आप दोनों चैदल चले आवें ॥ १० ॥ मथुग़में

पहुँचकर आप बसुदेवजीके घर न जार्यै क्योंकि आपके

कारण ही उन वृद्ध वसुदेवजीका केस सर्वदा निरादर करता

रहता है” ॥ ११॥

ओऔपराशरजी _ खोलछे--ऐसा कह--अक्रूरजी

मधुरापुरे चकते गये। उनके पीछे राम और कृष्ण भी

नगरमे प्रयेशकर राजसार्गपर आये॥ १२॥ वहिः नर

नारियोंसे आनन्दपूर्वक देखे जाते हुए वे दोनों वीर मतवाले

तरुण हाथियोंकि समान ल्त्रैलापूर्वक जा रहे थे ॥ १३ ॥

मार्गमें उन्होंने एक वस रैगनेवाटेः रजको घूमते देख

उससे स्कू-विरज्जे सुन्दर वस्त्र माँगे॥ १४ ॥ वह रजक

कंसका था और राजाके मुँहलूगा होनेसे बड़ा घमण्डी हो

गया था, अतः राम और कृष्णके वस्व मांगनेपर उतने

विस्मित होकर उनसे वदे जोरॉँके साथ अनेक दुर्वाक्य करे

॥ १५ ॥ तब श्रीकृष्णचद्धने क्रुद्ध होकर अपने करतलके

परहारसे उस्र दुष्ट रजकका सिर पृथिवोपर गिरा दिया

॥ ६६ ॥ इस प्रकार उसे गारकर राम और कृष्णने उसके

वस््र छीन लिये तथा क्रमशः नीरः और परोत वश

घारणकर वे प्रसश्नचित्तसे मालीके घर गये ॥ १७॥

हे मैत्रेय ! उन्हें देखते ही उस मारके; नेत्र आनन्दसे

खिल गये और बह आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा कि

“ये किसके पुत्र हैं और करसि आये हैं ?' ॥ १८ ॥ पीले

और नले वस्त्र धारण किये उन अति मनोहर बालकोंको

देखकर उसने समझा मानो दो देवगण ही पृथिजीतलूपर

पारे हैं ॥ १९ ॥ जब उन घिकसितमुखकमल बालकोंने

उससे पुष्प माँगे तो उसने अपने दोनों हाथ पृथिवापर

टेककर सिरसे भूमिकों स्पर्श क्रिया॥ २०॥ फिर उस

मालीने कहा--''हे नाथ ! आपस्मेग बड़े ही कृपालु हैं

जो मेरे घर पधारे | मैं धन्य हैं, क्योकि आज मैं आपका

पूजन कर सकूँगा' ॥ २१ ॥ तदनन्लः उसने “देखिये, ये

बहूत सुन्दर हैं, ये बहुत सुन्दर हैं--इस प्रकार

प्रसन्नमुखसे लुभा-लुभाकर उन्हें इच्छानुसार पुष्प

दिये ॥ २२॥ उसने उन दोनों पुरुषश्रेष्ठोंकी पुनः-

पून. प्रणामकर अति निर्मलः और सुगन्धित मनोहर पुष्प

दिये ॥ २३ ॥

तव कृष्णचन्द्रने भी प्रसन्न होकर उस मालीको यह वर

दिया कि “हे भद्र] मेरे आश्रित रहनैवाली लक्ष्मी तझे

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