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* पाली-म्रत एवं रम्भा-(कदली-) त्रत «

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अनक्ल्‍त्रयोदशी ही सब दोषोंकां दामन एवं समस्त मङ्गल

वृद्धि करनेवाली है। आप इसकी विधि सुनें।

पहले जब भगवान्‌ दैकरने कामदेवको दग्ध कर दिया,

तब वह बिना अङ्गके ही सबके झरीरमें निवास करने लगा।

कामदेवने इस ब्रतक्ो किया था, इसीसे इसका नाम अनङ्ग -

त्रयोदरौ पड़ा। इस त्तमे मार्गशीर्ष मासके शुक्ल पक्षकी

त्रयोदशीको नदी, तडाग आदियें खान कर, जितेन्द्रिय दो, पुष्प,

धूप, दीप, नैवेद्य और क्रलोद्धूत फत्म्रेंस भगवान्‌ झंकस्का

'शशिश्षेखर' नामसे पूजन करे और तिलसहित अक्षतोंसे हवन

के । रात्रिको मधु-प्राशन कर सो जाय । इससे व्रती कामदेवके

समान ही सुन्दर हो जाता है और दस अश्वमेष-यज्ञोका फल

प्रप्र करता है। इसी प्रकार पौष मासके शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीमें

भगवान्‌ इंकरका 'योगेश्वर' नामसे पूजन कर चन्दनका प्राशन

करे तो शरीरमें चन्दनके समान गन्ध हो जाती है और ब्रती

राजसूय-यज्ञका फल प्राप्त करता है। माघ मासके शुक्र पक्षकी

अ्रयोदशीकों भगवान्‌ इंकरका “महेश्वर' नामसे पूजन कर

मोतीका चूर्ण भक्षण करे तो उत्तम सौभाग्य प्राप्त करता है । इसी

प्रकार फाल्गुनमें 'हसेश्वर नामसे पूजन कर कंकोलका प्राशन

करनेसे अतुल सौन्दर्य प्राप्त होता है। चैत्रमें 'सुरूपक' नामसे

पूजन करने और कपुूर-प्राशन करनेसे त्ती चन्द्रके तुल्य मनोहर

हो जाता है और महान्‌ सौभाग्य प्राप्त करता है। यैदाखमे

'महारूप' नामसे पूजन कर जातीफलं (जायफल) का प्राशन

करे, इससे उत्तम कुकी प्राप्ति होती है और उसके सब काम

सफल हो जाते हैं तथा वह सहस्र गोदानका फल प्राप्त कर

ब्रह्मलोके निवास करता है। ज्येष्ठे 'प्रधुन्न' नामसे पूजन करे

और लबंगका प्राशन करे, इससे उत्तम स्थान, श्रेष्ठ लक्ष्मी और

सभी सुख-सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं तथा वह एक सौ आठ

वाजपेय-यज्ञोका फल प्राप्त. करता है। आषाढ़में 'उमाभर्ता'

नमसे पूजन कर तिल्लेदकका प्रादान करे। इससे उत्तम रूप

प्राप्त होता है तथा वह सौ वर्षतक सुखी जीवन व्यतीत करता

है। श्रावणमें "उमापति" नामसे पूजन कर तिस्खेंका प्राशन करे,

इससे पौण्डरीक-यज्ञका फल प्राप्त होता है। भाद्रपद मासमें

"सद्योजात नामसे पूजन कर अगरुका प्राशन करे, इससे वह

भूमिपर सबका गुरु बनता है और पुत्र-पौत्र, धन आदि प्राप्त

कर बहुत दिन संसारमें सुख भोगकर अन्तम विष्णुलेकमें

पूजित होता है। आश्िन मासमे 'त्रिदशाधिपति' नामसे पूजन

कर स्वर्णोदकका पग्राशन करें तो व्रती उत्तम रूप, सौभाग्य,

अगल्भता और करोड़ों निष्कदानका फर प्राप्त करता है।

कार्तिकमे 'विश्वेधर' नामसे पूजभ कर दमन (दौना) फलका

परादान करे तो व्रती अपने बाहुबलसे समस्त संसास्का स्वामी

होता है और अन्तपे झिवलोकमें निवास करता है।

इस प्रकार वर्षभर इस उत्तम ब्रतका पालन कर फरणा

करनी चाहिये। फिर करदा स्थापित कर उसके ऊपर ताम्रपात्र

और उसके ऊपर शिवकी प्रतिमा स्थापित कर श्वेत वस्स

आच्छादित करे । गन्ध, पुष्य, धूप, दीप, नैवेद्य आदिसे उसका

पुजन कर उसे शिवभक्त ब्राह्मणको प्रदान कर दे । साथ ही

पयस्विनी सवत्सा गौ, छाता और यथाराक्ति दक्षिणा देनी

चाहिये । इस प्रकार जो इस अनङ्गतरमोदशनी-्रतको करता है

और त्रत-पारणाके समय महान्‌ उत्सव करता है वह

निष्कण्टक राज्य, आयुष्य, बल, यदा तथा सौभाग्य प्राप्त करता

है और अन्तमे रिवलोकमें निवास करता है ।

(अध्याय ९०)

७७2.

पाली-ब्रत' एवं रम्भा-(कदली-) त्रत

राजा युथ्रिष्ठिरने पूछा-- भगवन्‌ ! श्रेष्ठ स्रियं जलपूर्ण

तडागों और सरोवरोंमें किस निमित्त स्लान-दान आदि कर्म

करती हैं? इसे आप बतायें।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! भाद्रपद मासके

जशुकू पक्षकी चतुर्दशीको बावली, कुएँ, पुष्करिणी तथा

बड़े-बड़े जल्मभशर्यों आदिके पास पवित्र होकर भगवान्‌

वरुणदेवको अर्घ्यं प्रदान करना चाहिये। व्रतीको चाहिये कि

तडागके तटपर जाकर फल, पुष्प, वस्त्र, दीप, चन्दन, महावर,

सप्तधान्य, बिना अग्निके स्पर्शसे पका हुआ अन्न, तिल,

चावल, खजूर, नास्किल, बिजौर नीव, नारंगी, अंगूर, दाड़िम,

१-पाली शब्द जिल है, यह कोदोमि प्रायः नहीं निरता । इसका अर्थ कूप, ठड़ाग आदि जलाशकोंकी रक्षाके लिये जने पेरेसे है। उसीपर बैठकर

ज्ियाँ इस व्रतो सम्यत करती हैं। वरुणदेव चैकि सभो जल्मेंमें रहते हैं, अतः इसे वहीँ बैठकर करना चाहिये।

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