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आचारकाण्ड ]

* भगवान्‌के विभिन्न अवतारोंकी कथा *

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4... के

भगवान्‌के विभिन्न अवतारोकी कथा तथा पतित्रता-माहात्म्यमें ब्राह्मणपत्नी, अनसूया

एवं भगवती सीताके पातित्रतका आख्यान

ब्रह्माजीने कहा -वेद आदि धर्मोको रक्षाके लिये

और आसुरी धर्मके विनाशके लिये सर्वशक्तिमान्‌ भगवान्‌

हरिनि अवतार धारण किया और इन सूर्य-चद्धादिके

वंशॉका पालन- पोष्य किया। ये अजन्मा हरि ही मत्स्य,

कूर्म आदि रूपॉमें अवतरित होते हैँ ।

मत्स्यका अवतार लेकर भगवान्‌ विष्णुने युद्धकण्टक

हयग्रीव नामक दैत्यका विनाश किया और वेदॉंकों पुनः

पृथिवौपर लाकर मनु आदिकी रक्षा की। समुद्र-मन्धनके

समय देवॉका हितसाधन करनेके लिये कूर्म (कच्छप) -

का अवतार ग्रहण करके उन्होंने मन्दगाचलको धारण

किया। क्षीरसागरके मन्धनके समय अमृतसे परिपूर्ण कमण्टलुको

लिये हुए धन्वन्तरि वैद्यके रूपर्े समुद्रसे वे ही प्रकट हुए।

उन्हींके वाग सुश्रतको अष्टाङ्ग आयुर्वेदकी शिक्षा दी गयी

थी। उन श्रीहरे स्त्री (मोहिनी)-का रूप धारण करके

देवॉको अमृतका पान कराया।

वराहका अवतार लेकर उन्होंने हिरण्याक्षको पारा।

उसके अधिकारसे एथिवौको छीनकर पुनः स्थापित किया

और देवताओंकी रक्षा कौ! तदनन्तर नरसिंहरूपमें इन्होंने

हिरण्यकशिपु तथा अन्य दैत्योंका विनाशकर वैदिकधर्मका

पालन किया। तत्पश्चात्‌ इस सम्पूर्ण संसारके स्वामी उन

विष्णुने जमदग्निसे परशुरामका अवतार लेकर इक्कीस यार

पृथिवौको क्षत्रियजातिसे रहित किया था।' कृतवीर्यके पुत्र

कार्तवीर्य सहलार्जुनकों युद्धम मार करके इन्हीं भगवान्‌

परशुसमने यज्ञानुष्टानमें उसके सम्पूर्णं गाज्यका आधिपत्य

महर्षि कश्यपको सौंप दिया और स्वयं महाबाहू ( परशुराम)

महेन्द्रगिरिपर जाकर तपमें स्थित हो गये।

इसके बाद दुष्टॉका मर्दन करनेवाले भगवान्‌ विष्णु

राम आदि चार स्वरूपोंमें राजा दशरथके पुत्रके रूपमें

अवतीर्ण हुए। जिनके नाम राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न

हैं। रापकी पत्नी जानकी हुईं। पिताके वचनको सत्य

करनेके लिये तथा माता (कैकेयी)-के हितकौ रक्षा करते

हुए रामने अयोध्याका राजवैभव त्यागकर शृंगवेरपुर,

चित्रकूट तथा दण्डकारण्यम निवास किया। तदनन्तर

वहाँपर शूर्पणखाकौ नाक कटवाकर उसके भाई खर तथा

दूषण नामक दो राक्षसोंकों मारा। तत्पश्चात्‌ जानकौका

अपहरण करनेवाले दैत्याधिपति रावणका वधकर्‌ उसके

छोटे भाई विभीषणको लङ्कापुरोमे राक्षसोके राजाके रूपमे

अभिषिक्त किया। उसके बाद अपने मुख्य सहयोगी सुग्रोव

तथा हनुमानादिके साध पुष्पक विमानपर आरूढ होकर

पतिपरायणा सीता एवं लक्ष्मणके साथ वे अपनी पुरौ

अयोध्या आ गये। यहाँ उन्होने राज्यसिंहासन प्राप्तकर

देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों तथा प्रजाका पालन किया।

उन्होंने धर्मकी भलीभाँति रक्षा की। अश्वमेधादि अनेक

यज्ञोका अनुष्ठान किया। भगवती सीताने राजा रामके साथ

सुख्नपूर्वक रमण किया। यद्यपि सीता रावणके घरमे रहौ,

फिर भी उन्होंने रावणको अंगीकार नहीं किया और सव॑दा

मन, वचन तथा कर्मसे राममें ही अनुरक्त रहीं। वे सीता

तो अनसूयाके समान पतिव्रता धीं।

ब्रह्माजीने पुनः कहा--अब मैं पतिव्रता स्त्रीका

माहात्म्य कह रहा हूँ, आप सुते ।

चुराने समयमें प्रतिष्ठानपुरमें कौशिक नामका एक

कुष्ठरोगी ब्राह्मन रहता था। उस ब्राह्मणक पतली अपने पति-

कौ देवताके समान ही सेवा-शुश्रूषा करतों थौ । पतिके द्वारा

तिरस्कार मिलनेपर भी बह पतिव्रता पिको देवता-रूप हो

मानती थी। एक बार पतिके द्वारा कहे जानेपर वेश्याकों

शुल्क देतेके लिये अधिकतम धन साथ लेकर वह उन्हें

कन्धेपर वैराकर वेश्याके घर पहुँचाने निकल पड़ी।

मार्गमें माण्डव्य ऋषि थे। यद्यपि वे ऋषि परम तपस्वी

महात्मा थे, तथापि उन्हें चोर समझकर राजदण्डके कूपे

लोहेके लम्बे शड्कुपर बिठा दिया गया था। अतः शरीरके

नोचेके छिद्ल्‍से ऊपर सिरके छिद्र ब्रह्मसन्धतक शरीरके

भीतर-ही-भीतर लौह शङ्कुके प्रवेशके कारण माण्डव्य

ऋषिका असह तीव्र वेदनासे ग्रस्त होना स्वाभाविक था।

इसौलिये माण्डव्य ऋषि चेदनाके अनुभवसे स्वयंकों

बचानेकी हृष्टिसे समाधिस्थ हो गये धे।

कुष्ट -व्याधियुक्त ब्राह्मण कौशिककी पतिव्रता पत्नी

१, यहाँ शषश्रिद गातिष्े रहित करनेका तात्पर्यं इतना ही है कि श्रीपरशुरामत्रे क्षत्रियॉँके दर्धका मर्दन किया और उनकी कर्तच्यपिमुखताको

नष्ट किया।

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