॥अथ द्वादशो5 ध्याय: ॥
। प्रथमः खण्डः ॥
१३७९. उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये । आरे अस्मे च शृण्वते ॥१॥
श्रेष्ठ यज्ञ कर्म करने वाले याजको की स्तुति सुनने को उदयत अग्निदेव की हम वन्दना करते है ॥१॥
१३८०. यः स्नीहितीषु पूर्व्यः संजग्मानासु कृष्टिषु । अरक्षदहाशुषे गयम् ॥२ ॥
सदा जाज्वल्वमान् वे अग्निदेव परस्पर स्नेह-सौजन्ययुक्त प्रजाओं के एकतर होने पर, दाताओं के ऐश्वर्य
की रक्षा करते हैं ॥२ ॥
१३८१. स नो वेदो अमात्यमम्नी रक्षतु शन्तमः । उतास्मान्पात्वं हसः ॥३ ॥
अत्यन्त कल्याणकारी वे अग्निदेव हमारे धन की रक्षा में सहायक हों और हमें पापो से दूर करें ॥३ ॥
१३८२. उत बरुवन्तु जन्तव उदग्निर्ृत्रहमाजनि । धनञ्जयो रणेरणे ॥४॥ .
शत्रुनाशक युद्ध में शत्रुओं को पराजित कर धन जीतने वाले अग्निदेव का प्राकट्य हुआ है, उद्गाता उनकी
स्तुति करें ॥४॥
[अ्नि-वि् के अन्वेषण की रणा मंत्र में निहित है ।]
॥ इति प्रथम: खण्डः ॥
कै कै
॥ द्वितीय खण्डः ॥
१३८३. अग्ने युक्ष्वा हि ये तवाश्वासो देव साधवः । अरं वहन्त्याशवः ॥९ ॥
हे अग्निदेव ! आप अपने तीव्रणामी ओर सशक्त अश्वो को रथ में जोड़ें ॥१॥
१३८४. अच्छा नो याह्या वहाभि प्रयांसि वीतये । आ देवान्त्सोमपीतये ॥२ ॥
है अग्निदेव ! हवि ग्रहण करने और सोम का पान करने के निमित्त हमारी ओर उन्मुख हों । देवों
को भी प्रकट करें ॥२॥
१३८५. उदग्ने भारत द्युमदजल्रेण दविद्युतत् । शोचा वि भाह्जर ॥३ ॥
संसार का भरण-पोषण करने वाले हे अग्निदेव ! आप प्रज्वलित होकर उन्नत हों । कभी क्षीण न होने वाले
अपने तेज से प्रकाशित हों और जगत् में प्रकाश फैलाएँ ॥३ ॥
१३८६. प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्गच: ।
अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः ॥४॥
सेवनीय, रसयुक्त सोम के शब्दो को (की गई स्तुति को ) लोभी कुत्ते न सुनें । उसे अपर" ५ के सदृश पीड़ित
करें; वैसे भृगु ने मख (असुर) का हनन किया था ॥४ ॥
३८७. आ जामिरत्के अव्यत भुजे न पुत्र ओण्योः ।
सरज्जारो न योषणां वरो न योनिमासदम् ॥५॥ `