अध्यमपर्ण, प्रथम भाग ]
५ कुण्ड-निर्माण एवं उनके संस्कारकी विधि «
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अङ्गुरके हों और उसका विस्तार छः अद्भुल़का हो। ओगूठेके
बसबर ही तर्जनी होनी चाहिये। दोष अङ्गुलियां क्रमशः छोटी
हों तथा सभी अड्जुलियाँ नखयुक्त बनाये । पैरकी लंबाई चौदह
बनानी चाहिये । अध्, ओष्ठ, वक्षःस्थर, धू, लस्प्रर,
गष्डस्थल तथा कपोल भरे-पूरे सुद्र सुन्दर तथा मौसल
बनाने चाहिये, जिससे प्रतिमा देखनेमें सुन्दर मालूम हो । नेतर
विशाल, फैले हुए तथा लालिमा लिये हुए बनाने चाहिये ।
इस प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न प्रतिमा शुभ और
पूज्य मानी गयी है । प्रतिपाके मस्तकमे मुकुट, कण्ठमें हार,
आाहुओंसें कटक और अगद पहनाने चाहिये । मूर्ति सर्वाङ्ग
सुन्दर, आकर्षक तथा तत्तत् अङ्गोके आभूषणोसे अलंकृत
छेनी चाहिये । भगवानकी परतिमा देवकत्रभौका आधान
दयेनेपर भगवत्यतिमा प्रत्येको अपनी ओर बरबस आकृष्ट
कर लेती है और अभीष्ट यस्तुका लाभ कराती दै ।
जिसका मुखमण्डल दिव्य प्रभासे जगमगा रहा हो,
कवन चित्र-विचित्र मणियोंके सुन्दर कुण्डल तथा हाथोंमें
कनक-मालाएँ और मस्तकपर सुन्दर केश सुशोभित हों, ऐसी
भक्तरको यर देनेवाल, सहसे परिपूर्ण, भगवतीकी सौम्य
कैदोरी प्रतिमाक निर्माण कराये । भगवती विधिपूर्वक अर्चना
करनेपर प्रसन्न होती हैं और उपासकोके मनोरथोंको पूर्ण
करती हैं।
नव ताल (साढ़े चार हाथ) की बिष्णुकी प्रतिमा
बनयानी चाहिये। तीन तालकी वासुदेक्की, पाँच तालकी
नृसिंह तथा हयग्रीवकी, आठ तालकी नारायणको, पाँच
तालकी महेशका, नव तालकों भगवती दुर्गाकी, तीन-तीन
तलको लक्ष्मी और सरस्वतीकी तथा सात ताकी भगवान्
सूर्यकी प्रतिमा बनयानेका विधान है।
भगवान्की मूर्तिको स्थापना तोर्थ, पर्वत, तालाब आदिके
समीप करनी चाहिये अधवा नगरके मध्यभागमें या जहाँ
ब्राह्मणोंका समूह हो, वहाँ करनी चाहिये । इनमें भी अविमुक्त
आदि सिद्ध क्षेत्रॉमें प्रतिष्ठा करनेवालेके पूर्वापर अनन्त कुस्मेंका
उद्धार हो जाता है। कलियुगमें चन्दन, अगरु, विल्व,
श्रीपर्णिक तथा पका आदि काष्टोके अभावमें मृष्मयौ मूर्ति
बनवानी चाहिये। (अध्याय १२)
जिला ५ 207 / बम
कुण्ड-निर्माण एवं उनके संस्कारकी विधि और ग्रह-झान्तिका माहात्म्य
सूतजी बोले--द्विजश्रेष्ठ | अब मैं यज़कुण्डोंके निर्माण
एवं उनके संस्कारकी संक्षिप्त विधि बतला रहा हूँ। कुष्ड दस
प्रकारके होते है-- (१) चौकोर, (२) वृत्त, (३) पदा,
(४) अर्धचन्द्र, (५) योनिकी आकृतिका, (६) चन्द्राकार,
(७) पञ्चकोण, (८) सष्ठकमेण (९) ॐषटकोण और
(१०) नौ कोणोंवाला ।
सबसे पहले भूमिका संशोधन कर भूमिपर पड़े हुए तृण,
केश आदि हटा देने चाहिये। फिर उस भूमिपर भस्म और
अगे घुमाकर भूमि-क्षुद्धि करनी चाहिये, तदनन्तर उस
भूमिपर जल-सिंचनकर वौजारोपण करे और सात दिनके बाद
कुण्ड-निर्माणके लिये खनन करना चहिये ¦ तत्पश्चात् अभीष्ट
उपर्युक्त दस कुण्डॉमेंसे किसीका निर्माण करना चहिये ।
करे। कामना-भेदसे कुण्ड भी अनेक आकारके होते हैं।
कुण्डके अनुरूप ही मेखत्प भी बनायी जातौ है। यज्ञॉमें
आहुतियोंकी संख्याका भी अलग-अलग विधान है। विधि-
प्रमाणके अनुसार आहूति देनी चाहिये । मानरहित हवन करनेसे
कोई फल नहो मिलता । अतः बुद्धिमान् मनुष्यकों मानका पूर्ण
ज्ञान रखकर ही कुण्डका विधियत् निर्माण कर यज्ञनुञ्ठान करना
चाहिये ।
जिस यज्ञका जितना मान होता है, उसी मानकी हो
योजना करनी चाहिये। पचास आहूतियोका मान सामान्य है,
इसके बाद सौ, हजार, अयुत, लक्ष और कोटि होम भी होते
हैं। बड़े-बड़े यज्ञ सम्पत्ति रहनेपर हो सकते हैं या
राजा-महाराजा कर सकते हैं। मनुष्य अपने-अपने प्राक्तन
कर्मके अनुसार सुख-दुःखका उपभोग करता है तथा
शुभाशुभ-फल ग्रहोंके अनुसार भोगता है। अतः शाक्तति-
पुष्टि-कर्ममे ग्रहोंकी दान्ति प्रयत्रपूर्ककत परम भक्तिसे करनी
चाहिये। दिव्य, अन्तरिक्ष और पृथिवी-सम्बन्धी बड़े-बड़े
अद्भुत उत्पातोंके होनेपर शुभाशुभ फल देनेबाली प्रह-शान्ति
करनी चाहिये। इन अवसरोंपर अयुत होम करना चाहिये।
काम्य -कर्म या शान्ति-पुष्टिक लिये ग्रहोंका भक्तिपूर्वक नित्य