९८.१० यजुर्वेद सहिता
१००३.दिवो मूर्धासि पृथिव्या नाभिरूर्गपामोषधीनाम् । विश्वायुः शर्म सप्रथा नमस्पथे ॥
हे अगे ! आप स्वर्गलोक के मस्तक तुत्य मूर्धन्य और पृथ्वी के नाभि स्वरूप केन्द्र बिन्दु है । आप जल
ओर ओषधियों के साररूप है । समस्त प्राणियों के जीवन आधार, सुख-प्रदायक आप समान रूप से व्याप्त होकर
स्थित है । सबके पथ-प्रकाशकरूप, आपके लिए सतत नमन है ॥५४ ॥
१००४. विश्वस्य मूर्थन्नधितिष्ठसि श्रितः समुद्रे ते हदयमप्स्वायुरपो दत्तोदधिं भिन्त ।
दिवस्पर्जन्यादन्तरिक्षात्पृथिव्यास्ततो नो वृष्ठ्याव ॥५५ ॥
हे अग्ने ! सर्वत्र व्याप्त होकर आप विश्च के सर्वोच्च स्थान में अधिष्ठित हैं आपका हृदय अन्तरिक्ष मे
तथा आयु जल में व्याप्त होकर प्रतिष्ठित है । आप द्युलोक से, अन्तरिश्च से, पृथिवी के गर्भ तथा अन्य स्थानों से
जल लाकर पृथिवी पर वृष्टि द्वारा हमारी रक्षा करें । मेघों को विदीर्ण कर जल प्रदान करें ॥५५ ॥
९००५.इष्ो यज्ञो भृगुभिराशीर्दा वसुभिः । तस्य नऽ इष्टस्य प्रीतस्य द्रविणेहागमेः ॥५६ ।
हे द्रविण (धन) ! आप हमारे इष्टरूप, हमसे प्रीति करने वाले है । धन की कामना करने वाले यजमान के घर
को अपने वैभव से सम्पन्न करें इच्छित फल देने वाला यह यज्ञ भृगुओं {शत्र विनाशक वीरे ) ओर वसुओं
(निवासक वीगे- भू सप्पदावान् वोरों ) द्वारा उत्तम प्रकार से सम्पादित किया गया है ॥५६ ॥
१००६. इष्टो अग्निराहुतः पिपर्त्तु न ऽ इष्ट हविः । स्वगेदं देवेभ्यो नमः ॥५७ ॥
यज्ञ सम्पादन मे सबसे प्रमुख अग्निदेव, याजको द्वारा प्रदत्त हवि से तृप्त होकर हमारे अभीष्ट को पूर्ण करें
और स्वयं गमनशील होकर यह हवि देवताओं को प्राप्त कराएँ ॥५७ ॥
१००७.यदाकूतात्समसुख्रोदधृदो वा मनसो वा सम्भृतं चक्षुषो वा । तदनु प्रेत सुकृतामु
लोकं यत्र ऋषयो जग्मुः प्रथमजाः पुराणाः ॥५८ ॥
हे ऋत्विजो ! जो ज्ञान अन्तर्पेरणा से, हृदय से, मानसं से या नेत्रादि इद्धियो से सम्यक् प्रकार स्रवित हुआ
है, उसके अनुगामी होकर आचारवान् सत्पुरुषो के दिव्यलोक को ही प्राप्त करें, जहाँ प्रथम उत्पन्न पूर्वकालीन
ऋषिगण प्राप्त हुए हैं ॥५८ ॥
१००८. एत & सधस्थ परि ते ददामि यमावहच्छेवधिं जातवेदाः । अन्वागन्ता यज्ञपतिवों
अत्रे त & स्म जानीत परमे व्योमन् ॥५९ ॥
स्वर्ग में निवास करने वाली हे दिव्य शक्तियो ! अग्निदेव ने जिस यज्ञ के सुखमय फल को यजमान के लिए
प्रदान किया है, उस फल को हम आपके लिए अर्पित करते हैं । हे देवो ! यजमान आपके पास आयेगा; परम
(व्यापक अथवा श्रेष्ठ) स्वर्ग मे आये यजमान को आप जानें । (अधीष्ट प्रदान करे ।) ॥५९ ॥
१००९. एतं जानीथ परमे व्योमन् देवाः सधस्था विद् रूपमस्य।
यदागच्छात्पथिभिर्देवयानैरिष्टपृतते कृणवाथाविरस्पै ॥६० ॥
परप श्रेष्ठ स्वर्ग में स्थित हे देवो ! इस यजप्रान से एवं इसके श्रष्टस्वरूप से अवगत हों । जिस समय यह
देवयान मार्ग (देवों के गमन योग्य मार्ग) से गमन करे, तब यज्ञ कर्मो के सम्पूर्ण फल इस यजमान के निमित्त
प्रकाशित करें, अर्थात् उसे प्रदान करें ॥६० ॥
9 प्रति जागृहि त्वमिष्टापूते स * सुजेथामयं च । अस्मन्त्सधस्थे
देवा यजमानश्च सीदत ॥६१९॥