उत्तरपर्व ]
+ माघ-स्रान-विधि *
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माघ-स्त्रान-विधि
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाराज ¦ कलियुगे
मनुष्योको स्रान-कर्ममें शिथिलता रहती है, फिर भी
माघ-स्रानका विशेष फल होनेसे इसकी विधिका यर्णन कर
रहा हूँ। जिसके हाथ, पाँच, याणी, मन अच्छी तरह संयत हैं
और जो विद्या, तप तथा कीर्तिसे समन्वित हैं, उन्हें ही तीर्थ,
सखान-दान आदि पुण्य कर्मोंका शास्तोंमें निर्दिष्ट फल प्राप्त होता
है। परंतु श्रद्धाहीन, पापी, नास्तिक, संशयात्मा और हेतुवादी
(कुतार्किक) इन पाँच व्यक्तियोको शास्त्रोक्त तीर्थ-स्रान
आदिका फल नहीं मिलता" ।
प्रयाग, पुष्कर तथा कुरुक्षेत्र आदि तीर्थम अथवा चाहे
जिस स्थानपर माघ-सखत्रान करना हो तो प्रातःकाल ही खान
करना चाहिये। माघ मासमें प्रातः सूर्यौदयसे पूर्वं खान करनेसे
सभी महापातक दूर हो जाते हैं और प्राजापत्य-यज्ञका फल
प्राप्त होता है। जो ब्राह्मण सदा प्रातःकाल खान करता है, वह
सभी पापोंसे मुक्त होकर परअरह्मको प्राप्त कर लेता है। उष्ण
जलसे खान, बिना ज्ञानके मन्त्रका जप, श्रोत्रिय ब्राह्मणके
बिना श्राद्ध और सायेकालके समय भोजन व्यर्थ होता है।
यायबव्य, वारुण, ब्राह्म और दिव्य--ये चार प्रकारके सान होते -
हैं। गायोंके रजसे वायव्य, मन्तरोंसे ब्राह्म, समुद्र, नदी, तालान
इत्यादिके जलसे वारुण तथा वर्षके जलसे स्नान करना दिव्य
खान कहत्मता है। इनमें वारुण खान विदिष्ट स्नान है।
ब्रह्मचारी, गृहस्य, वानप्रस्थ, सन्यासी और बालक, तरुण,
वृद्ध, सी तथा नपुसक आदि सभी माघ मासमे तीरथेमिं खान
करनेसे उत्तम फल प्राप्त करते है । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैदय
मन्त्रपूर्वक सान करें और खी तथा शूद्रोंकों मन्त्रहीन सान
करना चाहिये। माघ मासमें जलका यह कहना है कि जो
सूर्योदय होते ही मुझमें स्नान करता है, उसके ब्रह्महत्या,
सुरापान आदि बड़े-से-बड़े पाप भी हम तत्काल धोकर उसे
सर्वधा शुद्ध एवं पवित्र कर डालते हैः ।
माघ-सत्रानके व्रत करनेवाले ब्रतीको चाहिये कि वह
संन्यासीकी भाँति संयम-नियमसे रहे, दुष्टोंका साथ नहीं करें ।
इस प्रकारके नियमोंका दृढ़तासे पालन करनेसे सूर्य-चन्द्रके
समान उत्तम ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है।
पौष-फाल्गुनके मध्य मकरके सूर्यमें तीस दिन प्रातः
माघ-स््रान करना चाहिये। ये तीस दिन विशेष पुण्यप्रद हैं।
माघके प्रथम दिन ही संकल्पपूर्वक माघ-स्नानका नियम
अहण करना चाहिये। स्नान करने जाते समय त्रतीको बिना
वस्र ओढ़े जानेसे जो कष्ट सहन करना पड़ता है, उससे उसे
यात्रामें पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है।
तीर्थे जाकर ख्ानकर मस्तकपर मिट्टी लगाकर सूर्यको अर्य
देकर पितरोक तर्पण करे । जलसे बाहर निकलकर इष्टदेकको
प्रणामकर झख-चक्रधारी पुरुषोत्तम भगवान् श्रीमाधवका
पूजन के । अपनी सामर्थ्यके अनुसार यदि हो सके तो
प्रतिदिनं हवन करें, एक यार भोजन करे, ब्रह्मचर्य-वत धारण
करे और भूमिपर शयन करें। असमर्थ होनेपर जितना
नियमका पालन हो सके उतना हो करे, पतु प्रातःस््रान
अवद्य करना चाहिये। तिलका उबटन, तिलमिश्रित जलसे
खान, तिल्लेंसे पितृ-तर्पण, तिलका हवन, तिरका दान और
तिलसे बनी हुई सामग्रीका भोजन करनेसे किसी भी प्रकारका
कष्ट नहीं होतार । तीर्थम शीतके निवारण करनेके लिये
अप्नि प्रज्वलित करनी चाहिये। तैल और आँवलेका दान
करना चाहिये। इस प्रकार एक माहतक स्नानकर अन्तमें वख,
आभूषण, भोजन आदि देकर ब्राह्मणका पूजन करे और
कंबल, मृगचर्म, वख, रन्न तथा अनेक प्रकारके पहननेवाले
कपड़े, रजाई, जूता तथा जो भी शीतनिवारक चस हैं, उनका
दान कर “माधव:प्रीयताम' यह वाक्य कहना चाहिये। इस
प्रकार माघ मासमे स्नान करनेकलेके अगम्यागमन, सुवर्णकी
चोरी आदि गुप्त अथवा प्रकट जितने भी पातक हैं, सभी नष्ट
\-यस्य हस्तौ च पादौ च बाइगनलु सुसंयतम्।विद्या तप ककि स तीर्थफलमश्तें ॥
अश्रदधानः पपलमा = चम्तिकोऽच्छित्रसैदायः । हेदनि्षाश्च पञ्चैते
र्ट्वापः किक्किदभ्युदिते रकौ । ब्रह्मपर वा सुरापे चा के कं ते ते पुनीमहे ॥ (उत्तरपर्व १२२।१५)
र-माधमासे
न॒ लैर्थफलभागिनः ॥ (वत्त्वं १२२। ३-४)
३-लिलस्जयो तिल्पेदती तिलभोत्ता दिद । तिलद्धेता च दाता च पट्तिलों नावसौदति॥ (उत्तापर्व १२२। २७)