कैव्णवकाण्ल-झरीअयोध्या-माहास्म्य ] + सम्मेदतीर्थ, सीताकुण्ड, गुसहरि और चक्रतीय #
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राम बोले--सौमाग्ययती कीति! इस तीर्थ
विधिपूर्थक किया हुआ जान, दान, जप, होम अप्वा तप
सब अक्षय दो । मार्गशीर्ष कृष्णा नतुरदंसीको यक्ते क्ञानका
विशेष पर्व होगा । उस शमय इसमें कान करनेबाले भनुध्योंके
रुमस्त पार्पोका नाश होगा ।
प्रजापरेमी धभीरामचनद्रजीने सीसाजीकों इस प्रकार
शरदाने दिया था | सभीसे वह तीर्यं पृष्वीपर प्रसिद्ध है।
छोताकुष्ड मनुष्योकि लिये बड़ा अद्भुत तीयं है । उ तीर्थे
स्नान करके मनुष्व निश्चय ही भगवान् भीरामचम्द्रजीकों
प्राप्त कर छेता है। उसमें त्नानः दान और तपत्या करके
चन्दन, माका, धूप) दीप तथा अनेक भोतिके बैमवविस्तारसे
शरीरम और -सीतानीकी पूजा करके मनुष्य मुक्त हो जाता
है। मार्गशार्ष मासमें यहाँ स्नान करना चाहिये । इससे फिर
गमये नहीं आना पढ़ता । अन्य मये भी यहाँ स्नान
करके मतुध्य भगवान् विष्णुं कोके जाता दै । भयान्
विष्णुदरिके पश्चिम दिशामें चक्रि नामत प्रसिद्ध भीषिष्णु
निवास करते र, जो समस्त मनोवाम्छित फलोको देनेवाले
हैं| बुद्धिमानों में भे विद्रा पुश्य भी चकझूदरिकी मदिमाका
वर्णन नदी कर सकते । वहसि पश्चिम इरिस्मांत नामसे
प्रसिद्ध मगवान् विष्णुका परम पबि्न मन्दिर है, जो पारमार्थिक
शल देनेवाला दैँ। उसके दर्शनमांत्रसे मनुष्य शव पापा
भरकः हो जाता है | चकदरि और हरिस्खृति इन दोनोंके
दर्शनसे मनुष्य इस शृष्वीपर जितने पाप करते हैं, उन सबका
नाश हो जाता है ।
पूर्वकाऊकी बात है, देवताओं ओर भवुरोम कषा
भयङ्कर संग्राम हुआ । वरदानके मदसे उन्मत्त हुए देश्योंने
उस युद्धमें देक्ताओंको परास्त कर दिया । देवता भागने खमे ।
तब भगवान् रङ्करने उनका अगुआ बनकर उन्हें रोका और
बक्षाजीकों आगे करके सब लोग क्षीरसागरपर गये । बर्ह
भगवान् विष्णु क्षीस्समुद्रमें क्षेपतागकी शस्बापर शयन कर
रहे पे। मगकक्ती लक्ष्मी उनके पास बेंठकर अपने हायसे
उनके चरणारचिन्दोफी सया करती थीं। नारद आदि भेष
मुनि भगवानके गुण-मौरबका उचस्वर्से गान कर रहे चे ।
गष्दृजी छामने खड़े होकर निरन्तर हाथ जोड़े उनकी
सुति करते थे । क्षौरतागरके जरते उठती हुई तसज्नोंके
कारण भगवानके पीताम्बरगें जलके कुछ छटि पढ़े हुए
थे । नक्षत्रधमुदायके भमान प्रफाझमान उच्ज्वछ द्वार
भाबानके ग्रक्ष:स्पछकी शोभा शदा रहे पे । उनके कटिप्रदेश-
में पीताम्बर शोमायफने था | मुखपर मुख्कानकी छटा छा
रही थी | मगान् एक अद्भुत भागते भावित ये । कानोमे
मोती जड़े हुए दिव्य एवं स्थूल कुण्डल पटने हुए. ये |
इवेतद्वीपकी स्वच्छ रज़्मयथी छता-सी भगयानने धारण कर
रक््ली थी। मश्लकपर किरीट ओर हायोमें पद्मरागमणिके
बय मुशोमित ये । भगवान् शङ्करने विनीतभावसे सम्पूर्ण
देषताओंके साथ उस समय भगवानकी शरण ली और
एकाप्रचित्त होकर स्तवन किया |
भगवान् शिव बोले--जो ठंखारसमुद्रसे तारने और
गरुड़जीको सुष्व देनेवाडे रै, पनीभूत मोहान्धकारका निवारण
करनेके लिये चन्द्रस्वरूप हैं; उन भगवान् भीहरिफो नमस्कार
है। जहाँ ख़नमयी मणिकी प्रस्यलित शिखा प्रकाशित होती
है तथा जो चिमे भगवत्सज्ञरूपी सुधाकी वर्षा करनेवाली
चन्द्रिकाके तुल्य रै, मानसके उच्चानमैं ओ प्रयादित हेती
टै, उस भगयद्धक्तिरूपी मरन्दाकिनीकी मैं शरण केता हूँ।
बह लीव्यपूर्यक उन्खादशक्तिो जाग्रत् करनेवाली तथा
सम्पूर्ण जगत्म व्याप्त है। ख्यल्विक भावक पूर्वकरोटि है ।
उसे ही वैष्णवी शक्ति कहते हैं। हवासे हिलते हुए कमलदलके
पर्यके भीतर रहनेबाले पतनशीस जन्दुर्ओंष्टी भांति फ्तनके
गत॑में गिरनेयाक्ले प्राणियोंकों स्थिरता देनेबाली एकमात्र
भीदरिकी स्मृति ही है। हुृदयकमरूकी कलिकाकों विकसित
करनेवाली शानरूपी किरणमाष्मऑंसे मण्डित सूर्यस्वरूप आप