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कर लेता है। बावडी, कुआँ, तालाब, देव-
मन्दिर, अन्नका सदावर्तं तथा बगीचे आदि
बनवाना “पूर्तधर्म ' कहा गया है, जो मुक्ति प्रदान
करनेवाला है। अग्निहोत्र तथा सत्यभाषण, वेदोंका
स्वाध्याय, अतिथि-सत्कार और बलिवैश्रदेव -
इन्हें इष्टधर्म' कहा गया है । यह स्वर्गकी प्राप्त
करानेवाला है । ग्रहणकालमें, सूर्यकौ संक्रान्तिमें
और द्वादशी आदि तिथियोंमें जो दान दिया जाता
है, बह 'पूर्त' है । वह भी स्वर्ग प्रदान करनेवाला
है। देश, काल ओर पात्र दिया हुआ दान
करोड्गुना फल देता है । सूर्यके उत्तरायण और
दक्षिणायन प्रवेशके समय, पुण्यमय विषुबकालमें,
व्यतीपात, तिधिक्षय, युगारम्भ, संक्रान्ति,
चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा, द्वादशी, अष्टकाश्राद्ध,
यज्ञ, उत्सव, विवाह, मन्वन्तरारम्भ, वैधृतियोग,
दुःस्वप्नदर्शन, धन एवं ब्राह्मणक प्राप्तिमें दान
दिया जाता है। अथवा जिस दिन श्रद्धा हो उस
दिन या सदैव दान दिया जा सकता है। दोनों
अयन और दोनों विषुव -ये चार संक्रान्तियाँ,
"षडशीतिमुखा' नामसे प्रसिद्ध चार संक्रान्तियां
तथा ' विष्णुपदा' नामसे विख्यात चार संक्रान्तियोँ -
ये बारहो संक्रान्तियां ही दानके लिये उत्तम मानी
गयी हैं। कन्या, मिथुन, मीन और धनु राशियोंमें
जो सूर्यकी संक्रान्तियां होती हैं वे षडशीतिमुखा'
कही जाती हैं, वे छियासीगुना फल देनेवाली है
उत्तरायण और दक्षिणायन-सम्बन्धिनी (मकर
एवं कर्ककी ) संक्रान्तियोके अतीत और अनागत
(पूर्वं तथा पर) घटिकाएँ पुण्य मानी गयी हैँ ।
कर्क-संक्रान्तिकी तीस-तीस घड़ी और मकर-
संक्रान्तिकी बीस-बीस घड़ी पूर्व और परकी भी
पुण्यकार्यके लिये विहित हैं। तुला और मेषकी
संक्रान्ति वर्तमान होनेपर उसके पूर्वापरको दस-
दस घड़ीका समय पुण्यकाल है। “षडशीति-
मुखा" संक्रान्तियोके व्यतीत होनेपर साठ घड़ीका
समय पुण्यकाले ग्राहय दै । 'विष्णुपदा' नामसे
प्रसिद्ध संक्रान्तियोकि पूर्वापरकी सोलह- सोलह
घडियोको पुण्यकाल भमाना गया है। श्रवण,
अश्विनी और धनिष्टाको एवं आश्लेषाके मस्तकभाग
अर्थात् प्रथम चरणे जब रविवारका योग हो,
तब यह ' व्यतीपातयोग' कहलाता है ॥ १--१३॥
कार्तिकके शुक्लपक्षकी नवमीको कृतयुग
और वैशाखके शुक्लपक्षकी तृतीयाको त्रेता प्रारम्भ
हुआ। अब दवापरके विषयमे सुनो - माघमासकी
पूर्णिमाको द्वापरयुग और भाद्रपदके कृष्णपक्षकी
त्रयोदशीको कलियुगकी उत्पत्ति जाननी चाहिये।
मन्वन्तरोंका आरम्भकाल या मन्वादि तिथियाँ इस
प्रकार जाननी चाहिये-आश्विनके शुक्लपक्षको
नवमी, कार्तिककी द्वादशी, माघ एवं भाद्रपदकी
तृतीया, फाल्गुनकी अमावास्या, पौषकी एकादशी,
आषादृकी दशमी, माघमासकी सप्तमी, श्रावणके
कृष्णपक्षकी अष्टमी, आषाढ़की पूर्णिमा, कार्तिक,
फाल्गुन एवं ज्येष्टकी पूर्णिमा ॥ १४--१८॥
मार्गशीर्षमासकी पूर्णिमाके बाद जो तीन
अष्टमी तिथियाँ आती हैं, उन्हें तीन "अष्टका"
कहा गया है । अष्टमीका "अष्टका ' नाम है। इन
अष्टकाओंमें दिया हुआ दान अक्षय होता है ।
गया, गङ्गा और प्रयाग आदि तीर्थो तथा
मन्दिरोंमें किसीके बिना मागि दिया हुआ दान
उत्तम जाने। किंतु कन्यादानके लिये यह नियम
लागू नहीं है। दाता पूर्वाभिमुख होकर दान दे
और लेनेवाला उत्तराभिमुख होकर उसे ग्रहण
करे। दान देनेवालेकी आयु बढ़ती है, किंतु
लेनेवालेकी भी आयु क्षीण नहीं होती। अपने
और प्रतिगृहीताके नाम एवं गोत्रका उच्चारण
करके देय वस्तुका दान किया जाता है। कन्यादानमें
इसकी तीन आवृत्तियाँ की जाती हैं। स्नान और
पूजन करके हाथमे जल लेकर उपर्युक्त संकल्पपूर्वक
दान दे। सुवर्ण, अश्च, तिल, हाथी, दासौ, रथ,