] श्रीकृष्णजन्मस्वण्ड + ड३९
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है। साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण योगीन्द्रोंक गुरुके | भूतलपर प्रकट हुई थीं। इनके जन्म और चरित्रका
भी गुरु हैं। जो जिसका अंश होता है, वह उस | वर्णन करता हूँ, सुनो।
अंशीके सुखसे सुखी होता है। प्रभो! आपने ही | एक समयकी बात है, पुण्यदायक भारतवर्षमें
यह वर्णन किया है कि आप दोनों नर और |गौतम-आश्रमके समीप गन्धमादन पर्वतपर धरा
नारायण श्रीहरिके चरणोंमें विलीन हो गये थे और द्रोणने तपस्या आरम्भ की। मुने! उनकी
उनमें भी आप ही साक्षात् गोलोकके अंश हैं; | तपस्याका उद्देश्य था- भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन।
अतः उनके समान ही महान् हैं (इसीलिये | सुप्रभाके निर्जन तटपर दस हजार वर्षोंतक वे
श्रीकृष्णलीलाएँ आपके प्रत्यक्ष अनुभव आयी | वसु-दम्पति तपस्यामे लगे रहे, परंतु उन्हें
हुई हैं; अतः आप उनका वर्णन कीजिये) । | श्रीहरिके दर्शन नहीं हुए। तब वे दोनों वैराग्यवश
भगवान् नारायण बोले-- नारद! ब्रह्मा, |अग्रिकुण्डका निर्माण करके उसमें प्रवेश करनेको
शिव, शेष, गणेश, कुर्म, धर्म, मैं, नर तथा | उद्यत हो गये । उन दोनोंको मरनेके लिये उत्सुक
कार्तिकेय-ये नौ श्रीकृष्णके अंश है । अहो ! उन | देख वहाँ आकाशवाणी हुई--' बसुश्रेष्ठ ! तुम दोनों
गोलोकनाथकी महिमाका कौन वर्णन कर सकता | दूसरे जन्मे भूतलपर अवतीर्णं हो गोकुलमें अपने
है? जिन्हें स्वयं हम भी नहीं जानते और न पुत्रके रूपमे श्रीहरिके दर्शन करोगे; योगियोंको
वेद ही जानते है । फिर दूसरे विद्वान् क्या जान | भी उन भगवानूका दर्शन होना अत्यन्त कठिन
सकते हैं ? शुक, वामन, कल्कि, बुद्ध, कपिल | है । बड़े-बड़े विद्रानोकि लिये भी ध्यानके द्वारा
ओर मत्स्य-ये भी श्रीकृष्णके अंश हैं तथा अन्य | उन्हें वशमें कर पाना असम्भव है । वे ब्रह्मा आदि
कितने ही अवतार हैं, जो श्रीकृष्णकौ कलामात्र | देवताओंकि भी वन्दनीय हैं।' यह सुनकर धरा
है । नृसिंह, राम तथा श्वेतद्वीपके स्वामी विराट् | और द्रोण सुखपूर्वक अपने घरको चले गये
विष्णु पूर्ण अंशसे सम्पन्न है । श्रीकृष्ण परिपूर्णतम | ओर भारतवर्षे जन्म लेकर उन्होंने श्रीहरिके
परमात्मा हैँ । वे स्वयं ही वैकुण्ठ और गोकुलमें | मुखारविन्दके दर्शन किये । इस प्रकार यशोदा और
निवास करते ह । वैकुण्ठे वे कमलाकान्त कहे | नन्दका चरित तुमसे कहा गया; अब देवताओकि
गये हैं और रूप-भेदसे चतुर्भुज है । गोलोक और | लिये भौ परम गोपनीय रोहिणीका चरित्र सुनो।
गोकुलमें ये द्विभुज श्रीकृष्ण स्वयं ही राधाकान्त एक समय देवमाता अदितिने ऋतुमती
कहलाते है । योगी पुरुष इन्हीके तेजको सदा | होनेपर समस्त श्रृज्ञारोंसे सुसज्जित हो अपने
अपने चित्ते धारण करते हैं। भक्त पुरुष इन्हीं | पतिदेव श्रीकश्यपजीसे मिलना चाहा। उस समय
भगवान्के तेजोमय चरणारविन्दका चिन्तन करते | कश्यपजी अपनी दूसरी पत्नी सर्पमाता करके
है । भला, तेजस्वीके बिना तेज कहाँ रह सकता | पास थे। कश्यपजीके आनेमें विलम्ब होनेपर
है? ब्रह्मन्! सुनो। मै तुमसे यशोदा, नन्द ओर | अदितिको बहुत क्षोभ हुआ और उन्होंने कटरूको
रोहिणौके तपका वर्णन करता हूँ, जिसके कारण |शाप दे दिया कि “वे स्वर्गलोकको त्यागकर
उन्होने श्रीहरिका मुँह देखा था। वसुओंमें श्रेष्ठ मानव -योनिको प्रा हों ।' इस बातको सुनकर
तपोधन द्रोण नन्द नामसे इस धरातलपर अवतीर्णं | कद्रूने भी अदितिको शाप दिया कि "वे जरायुक्त
हुए थै । उनकी पल्ली जो तपस्विनी धरा थीं, वे | होकर मर्त्यलोकमें मानव-योनिमें जाये ।'
ही सती-साध्वी यशोदा हुई थीं। सको जन्म | इस प्रकार दोनेकि शापग्रस्त होनेपर कश्यपजीने
देनैवाली नागमाता कद्रू ही रोहिणी बनकर । कटरुको सान्त्वना देकर समझाया कि “तुम मेरे