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काण्ड-१० सुक्त- ३ ११

यह वरणमणि हमारे रोगरूप शत्रुओं का निवारण करे । रोगी मनुष्य में जो यक्ष्मारोग प्रवेश कर चुके हैं, देव

शक्तियाँ उनका निवारण करें ॥५ ॥

२७०७. स्वप्नं सुप्त्वा यदि पश्यासि पापं मृगः सृतिं यति धावादजुष्टाम्‌

परिक्षवाच्छकुनेः पापवादादयं मणिर्वरणो वारयिष्यते ॥६ ॥

हे पुरुष !यदि आप स्वप्न में सोते समय पाप के दृश्यों को देखते हों, अनुपवुक्त दिशा कौ ओर पशु भागता

हो; इन अपशकुनों, शकुनि पक्षी के कठोर शब्दों और नाक फुरफुराने के दोषों से यह मणि आपको संरक्षित करेगी ।

२७०८. अरात्यास्त्वा नितऋत्या अभिचारादथो भयात्‌ ।

मृत्योरोजीयसो वधाद्‌ वरणो वारयिष्यते ॥७ ॥

हे पुरुष ! यह वरणपणि आपको शत्रुओं, पापदेवता , अभिचार प्रयोग, मृत्यु के भयानक संहार और अन्य

भय से सुरक्षित करेगी ॥७ ॥

२७०९. यन्मे माता यन्मे पिता भ्रातरो यच्च मे स्वा यदेनश्चकृमा वयम्‌ ।

ततो नो वारविष्यतेऽयं देवो वनस्पतिः ॥८ ॥

हमारे माता-पिता, बान्धवजनो और आत्मीय- परिजनों द्वारा प्रमादवश जो भी पापकर्म बन पड़े हों, उनसे ये

वनस्पतिदेव हमारा संरक्षण करेंगे ।८ ॥

२७१०. वरणेन प्रव्यथिता भ्रातृव्या पे सबन्धवः ।

असूर्तं रजो अप्यगुस्ते यन्त्वधमं तमः ॥९ ॥

इस वरणमणि ओर हमारे बान्धवो से शत्रु समुदाय पीड़ित हों । वे अन्धकारपूर्ण विस्तृत धूलयुक्त स्वान

को प्राप्त करं तथा भयानक अन्धकार से आच्छादित हों ॥९ ॥

२७११. अणिष्टोऽहमरिष्टगुरायुष्मान्त्सर्वपूरुषः ।

तं मायं वरणो मणिः परि पातु दिशोदिशः ॥१० ॥

हम अनिष्ठरहित होकर शान्ति लाभ प्राप्त कर रहे है । समस्त परिवारीजनों से युक्त होकर हम दीर्घायु प्राप्त

कर, यह वरणमणि समस्त दिशाओं और उपदिशाओं में हमारी संरक्षक हो ॥१० ॥

२७१२. अयं मे वरण उरसि राजा देवो वनस्पतिः ।

स मे शत्रून्‌ वि बाधतामिनद्रो दस्यूनिवासुरान्‌ ॥११ ॥

यह दिव्यतायुक्त, वनस्पति विनिर्मित वरणमणि दीप्तिमान्‌ होते हुए हमारे हृदयक्षेत्र में प्रतिष्ठित है । जिस

प्रकार इन्द्रदेव असुरो को संताप देते हैं, उसी प्रकार ग्रह वरणमणि हमारे लिए कष्टप्रद शत्रुओं को पीड़ित करे ॥११ ॥

२७१३. इमं बिभर्मि वरणमायुष्माउछतशारद: ।

स मे राष्ट्र च क्षत्रं च पशुनोजश्च मे दधत्‌ ॥१२ ॥

इस वरणमणि द्वारा हमारे अन्दर राष्ट्रीय प्रेम, रक्षण-सामर्थ्य, गौ आदि पशुओं कौ प्राप्ति तथा शारीरिक,

मानसिक, आत्मिक बल की स्थापना हो । शतायु होने के लिए हम इस मणि को धारण करते हैं ॥१२ ॥

२७१४. यथा वातो वनस्पतीन्‌ वृक्षान्‌ भनक्तच्योजसा ।

एवा सपत्नान्‌ मे धङ्ग्ध पूर्वाञ्जातां उतापरान्‌ वरणस्त्वाभि रक्षतु ॥१३ ॥

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