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* पुराणं परं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ «

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु

हो जाते हैं। माघ-ख्रायी पिता, पितामह, प्रपितामह तथा माता,

मातामह, युद्धमातामह आदि इक्कीस कुल्मेंसहित समस्त पितरो

आदिका उद्धार कर और सभी आनन्दोको प्राप्तकर अन्तमें

विष्णुल्मेकको प्राप्त करता है'। (अध्याय १२२)

---ब--

स्नान और तर्पण-विधि

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--राजन्‌ ! स्ानके विना न

तो शरीर ही निर्मल होता है और न भावकी ही शुद्धि होती है,

अतः दारीरकी शुद्धिके लिये सबसे पहले स्नान करनेका

विधान है। घरमें रखे हुए अथवा तुरंतके निकाले हुए जलसे

स््रान करना चाहिये। (किसी जत्पदाय या नदीका खान सुलभ

हो तो और उत्तम है।) मन्त्रवेत्ता विदान्‌ पुलुषकों मूल मन्त्रके

द्रा तीर्थकी कल्पना कर लेनी चाहिये। “ॐ नमो

जारायणाय'--यह मूल मन्त्र है। पहले हाथमें कुञ्च लेकर

विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्दियोको संयममें

रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे । फिर चार हाथका चौकोर

मण्डल बनाकर उसमें निम्नाद्ध्त मन्त्रोंद्रार भगवती गङ्गाका

आवाहन करें--'“गड्ढे ! तुम भगवान्‌ श्रीविष्णुके चरणोंसे

प्रकट हुई हो, श्रीविष्णु ही तुम्हारे देवता हैं, इसीलिये तुम्हें

कैष्णवी कहते हैं। देवि ! तुम जन्मसे लेकर मृत्युतक मेरे द्वार

किये गये समस्त पापोंसे मेरा ऋण करो । स्वर्ग, पृथ्वी और

अन्तरिक्षमें कुछ साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं, इसे वायुदेवताने

(गिनकर) कहा है। माता जाहवि ! वे सब-के-सब तीर्थ

तुम्हे जरूमें स्थित हैं। देवलोकमें तुम्हा नाम नन्दिनी और

नलिनी है। इनके अतिरिक्त क्षमा, पृथ्वी, आकादागङ्गा,

प्रसादिनी, क्षेम्या, जाती, शान्ता और शान्तिप्रदायिनी `

आदि भी तुम्हारे अनेको नाम हैर । जहाँ खनके समय इन

पवित्र नामका कीर्तन होता है, वहाँ त्रिपथगामिनी भगवती

गङ्गा उपस्थित हो जाती हैं।

सात बार उपर्युक्त नामोंका जप करके सम्पुटके आकारमें

दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले। तीन, चार, पाँच या

सात बार उसे अपने मस्तकपर डाले, फिर विधिपूर्वक

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ॥

मृत्तिके हर से सर्व यत्मया दुष्कृते कृतम्‌ ॥

उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन इातवाहूना ।

नमस्ते सर्वत्त्ेकानामसुारिणि सुख़ते ॥

(उत्तर्पर्व १२३ । १२-१३)

. "वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्च और रथ चत्पर करते है ।

भगवान्‌ श्रीविष्णुने भी कमनरूपसे तुम्हें एक पैरसे नापा था ।

मृत्तिके ! मैंने जो बु कर्म किये हो, उन सबोको दूर कर दो ।

देवि } भगवान्‌ श्रीविष्णुने सैकड़ों भुजाओंवाले यराहका रूप

धारण करके तुम्हें जलसे बाहर निकाल्म था। तुम सम्पूर्ण

ल्मेकॉंके समस्त प्राणियोंमें प्राण संचार करनेवाली हो । सुत्रते !

तुम्हें मेरा नमस्कार है।'

इस प्रकार मृत्तिका लगाकर पुनः स्नान करें। फिर

विधिवत्‌ आचमन करके उठे और शुद्ध सफेद धोती एवं चर

धारण कर त्रिलोकीको तृप्त करनेके लिये तर्पणं करे । सबसे

पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुदर ओर प्रजापतिका तर्पण करे । तत्पश्चात्‌

देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, श्रेष्ठ अप्सराओं, क्रूर सर्प, गरड

पक्षी, वृक्ष, जम्भक आदि असुर, विद्याधर, मेष, आकयदाचारी

जीव, निराधार जीव, पापौ जीव तथा धर्मपरायण जीयोंको तृप्त

केके लिये मैं जल देता ह यह कहकर उन सबको

जलाञ्जलि दे*। देवताओंक्) तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको

१-माष-खात-माहात्यके तामसे विभिन्न पुफ्लोंके कई स्वतन्त्र रन्ध हैं। जिनका सारभूत ओंदा इस अध्यायमें उद्धृत है।

स्दने ते नाम देवेषु नलिनीति च। क्षपा पृथ्वी

विद्याधरा सुप्रसन्ना तथा लेकप्रसादिनी | कस्को तथा

-देवा यशस्तथा नागा गन्प्काप्लरसो गणाः क्रूदः सर्फ

च बिहगा विश्वकाया शियामृता ध

जाहती च वन्ता आत्तिप्रदायिती ॥ (उत्तापं १२३ । ५--८)

सूपर्णाक्च तरवो जन्भकस्दयः ॥

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