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# पुराण परमे पुण्ये भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ कै

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

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ब्रह्माण्डका आधिपत्य मिलता है। जो शुक्र पक्षकों सप्तमी

तिथिको नक्तब्रत करके सुर्यनारायणका पूजनकर सप्तधान्य और

लवण ब्राह्मणक दान देता है, वह अपने सात कुत्म्रेंका उद्धार

करता है। यह धान्यत्रत है। एक मास उपवासकर जो

ब्राह्मणक्रें गाय प्रदान करता है, उसे विष्णुल्मेककी प्राप्ति होती

है। इसे भीमद्रत कहते हैं।

जो तीस पलसे अधिक पर्वत और समुद्रोंसहित स्वर्णकी

पृथ्वी बनाकर तिलकम गशिपर रखकर कुटुम्बी ब्राह्मणक दान

करता है तथा दूध पीकर रहता है, वह सात कल्पतक

रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह महीग्रत कहलाता है।

माघ अथवा चैत्र मासके शुक्र पक्षकी तृतीयाकों गुड़का

भक्षण करे तथा सभी उपस्करोंसहित गुडधेनु ब्राह्मणको दान

दे, उसे उपाब्रत कहते हैं। इस व्रतको करनेवाला गौरील्लेकमें

निवास करता है। जो एक वर्षतक केवल एक ही अक्का

भोजन करता है और भक्ष्य पदार्थेकि साथ जलका खड़ा दान

करता है, वह कल्पपर्यन्त शिवल्ओेकमें निवास करता है । इसे

ज्राप्तिब्रत कहते हैं। जो कार्तिकसे आरम्भ कर प्रत्येक मासकी

सृतीयाको रात्रिमें गोमूत्रमें पकायी गयी लपसीका प्राशन करता

है, वह गौरीलोकमें एक कल्पतक निवास करता है, अनन्तर

पृथ्वीपर राजा होता है। यह महान्‌ कल्याणकारी स्द्क़त है । जो

पुरुष कन्यादान करता है अथवा कराता है, वह अपने इकोस

कुल्लेंसहित ब्रह्मलेकको प्राप्त करता है। कन्यादानसे बढ़कर

कोई भी दान उत्तम नहीं है। इस दानकों करनेसे अक्षय

स्वर्गकी प्राप्ति होती है। यह कन्यादानक्रत है। तिलपिष्टका

हाथी बनाकर दो त्प्रल वस्र, अंकुश, चामर, मातर आदिसे

उसको सजाकर तथा ताप्रपात्रमें स्थापित करनेके बाद

वस््राभूषण आदिसे पत्रीसहित ब्राह्मणका पूजन करके गलेतक

जलमें स्थित होकर वह हाथी उनको दान कर दे। यह

कान्तारघ्रत है। इस व्रतको करनेसे जंगल आदिसे सम्बन्धित

समस्त संकट और पापोंसे छुटकारा मिल जाता है।

जो ज्येष्ठा नक्षत्र आनेपर “ब्रातारमिन्द्रमलितारमिद्रम्‌ः”

आदि मन्त्रोंसे इन्द्रदेवताका व्रत-पूजन तथा हवन करते हैं, वे

प्रलयपर्यत्त इन्द्रलोके निवास करते हैं। इसे पुरन्दरत्रत या

इन्कज़त कहते हैं। जो पश्ञमीकों दूधका आहार करके सुवर्णकी

नाग-प्रतिमा ब्राह्मणको देता है, उसे कभी सर्पका भय नहीं

रहता। शुक्त पक्षकी अष्टमीको उपवास कर दो श्वेत वल ओर

घण्टासे भूषित बैल ब्राह्मणको दान दे । इसे वृषत्रत कहते हैं।

इस ब्रतको करनेवाल्त एक कल्पतक झिवलोकमें निवास

करता है तथा पुनः यजाका पद प्राप्त करता है। उत्तरायणके

दिन एक सेर घीसे सूर्यनारायणको खान कराकर उत्तम घोड़ी

ब्राह्मणको दे । इस व्रतको शज्ञीक्रत कहते हैं। इस ब्रतको

करनेवाले व्यक्तिको अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है तथा अन्तमे

वह पुत्र, भाई, स्त्री आदिसहित सूर्यल्त्रेकमें निवास करता है।

जो नवमीक नक्तत्रतकर भगवती विश्यवासिनीकी पूजाकर

पिङ्खरके साथ सुवर्णका शुक्र ब्राह्मणको प्रदान करता है, उसे

उत्तम वाणी और अन्तम अप्रिलोककी प्राप्ति होती है। इसे

आमग्रेयत्रत कहते हैं।

विष्कुम्ण आदि सत्ताईस योगॉमें नक्तत्रत करके क्रमसे

घी, तेल, फल, ईख, जौ, गेहूँ, चना, सेम, शालि-चावल,

नमक, दही, दूध, वस्र, सुवर्ण, कंबल, गाय, बैल, छतरी,

जूता, कपूर, कुंकुम, चन्दन, पुष्य, लोहा, ताम्र, कोस्य और

चाँदी ब्राह्मणको देना चाहिये। यह योगत्रत है । इस व्रतको

करलेवाल्म व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ओर उसको

कभी अपने इषटसे वियोग नहीं होता। जो कार्तिकी पूर्णिमासे

आरम्भ कर आश्चिनकी पूर्णिमातक ऋरह पूर्णिमा ओमि क्रमसे

मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुल, वृश्चिक, धनु,

मकर, कुम्भ तथा मीन--इन बारह राशियोंकी स्वर्ण-

प्रतिमाओंको वख, माल्य आदिसे अलंकृत एवं पुनितकर

दक्षिणाके साथ ब्राह्मणको दान करता है, उसके सम्पूर्ण

उपद्रवोंका शमन हो जाता है एवं सारी आदा पूर्ण हो जाती

हैं और उसे सोमत्तरेककी प्राति होती है। यह राश्िक्रत

कहलाता है।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! मैने इन विविध

ब्तोंको बतलाया है, इन ब्रतॉंकी विधि श्रवण करने या पढ़ने-

मात्रसे ही पातक, महापातक और उपपातक नष्ट हो जति हैं।

जो कोई भी व्यक्ति इन व्रतोको भक्तिपूर्वक करेगा, उसे धन,

सौख्य, संतान, स्वर्ग आदि कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं होगा ।

(अध्याय १२१)

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