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» पुराणों पर पुण्य भविष्य॑ सर्वसौख्यदम्‌ «

{ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू

लिये उसने प्रार्थना भी की । अन्तमें कन्याके पिता मलवध्वजने

जीमूतवाहनसे उसका विवाह करा दिया।

खजा मलयध्वजका पुत्र विश्वावसु एक दिन अपने बहनोई

जीमूतवाहनके साथ गन्धमादन पर्वतपर गया । वहाँ उसने

देखकर गरुड़ अत्यन्त प्रसन्न हो गया और उसने विद्याधर

जीमूतवाहनको तीन वर दिये। अब मैं आगेसे कभी

शद्बुचूडके वंशजोंको नहीं खारकैगा । श्रेष्ठ जीमूतवाहन ! तुम

विद्याधरोंकी नगरीमें श्रेष्ठ राज्य प्राप्त करोगे और एक लाख

नर-नारायणको प्रणाम किया। उसी शिखरपर भगवान्‌ वर्षतक आनन्दका उपभोग कर वैकुण्ठ प्राप्त करोगे।' इतना

किष्णुका वाहन गरुड़ आया। उस समय शह्डुचूड नागकी

माता, जहाँ जीमूतवाहन था वहाँ विलाप कर रही थी। खीके

करुणक्रन्दनको सुनकर दीनवत्सल जीमूतवाहन दुःखी होकर

शीघ्र ही वहाँ पहुँचा। वृद्धाको आधासन देकर उसने पूझ---

“तुम क्यो ये रही हो ? तुम्हें क्या कष्ट है ?' वह बोली--

देव ! आज मेरा पुत्र गरुड़का भक्ष्य बनेगा, उसके वियोगके

कारण दुःखसे व्याकुल होकर मैं रो रही हूँ।' यह सुनकर राजा

जीमूतवाहन गछरुडू-शिखरपर गया । गरुड़ उसे अपना भक्ष्य

समझकर पकड़कर आकाशम ले गया । जीमूतवाहनकी पत्री

कमलाक्षी आकाशम गरुड़के दवाय भक्षण किये जाते हुए अपने

पतिको देखकर दुःखसे रोने लगी । परंतु बिना कष्टके खाये

जाते उस जीमूतवाहनकतरो मानव -रूपमें देखकर गरुड़ डर गया

और जीमूतवाहनसे कहने लगा--'तुम मेरे भक्ष्य क्यो बन

गये ?' इसपर उसने कहा--'शझ्लुचूड नागकी माता बड़ी

दुःखी थी, उसके पुत्रकी रक्षाके लिये मैं तुम्हारे पास आया ।'

जब यह घटना शङ्घुचूड नागको मालूम हुई तो दुःखी होकर

वह शीघ्र ही गरुड़के पास आया और कहने लगा--

“कृपासागर ! आपके भोजनके लिये मैं उपस्थित हूँ।

महामते ! इस दिव्य मनुष्यकों छोड़कर मुझे अपना आहार

बनाइये ।' जीमृतवाहनकी महानता और परोपकास्की भावना

कहकर गरुद अन्तर्हित हो गया और जीमूतवाहनने पितासे

राज्य प्राप्त किया तथा अपनी पत्नी कमलाक्षीके साथ

राज्य-सुख भोगकर अन्तमें वह वैकुण्ठलोककों चला गया।

वैतालने राजासे पूछा--भूपते ! अब आप बताइये

कि शङ्घचूड तथा जीमूतवाहन--इन दोनोंमें किसको महान्‌

फल प्राप्त हुआ और दोनो कौन अधिक साहसी धा ?

राजा बोला-- वैताल ! शङ्घचडको ही महान्‌ फल

प्राप्त हुआ; क्योंकि उपकार करना तो राजाका स्वभाव ही होता

है। राजा जीमूतवाहनने शह्बुचूडके लिये यद्यपि अपना जीवन

देकर महान्‌ त्याग एवं उपकार किया, उसीके फलस्वरूप

गरुडे प्रसन्न होकर उसे राज्य एवं वैकुण्ठ-प्राप्तिका वर प्रदान

किया, तथापि राजा होनेसे जीमृतकाहनका जीवन-दान

(नागकी रक्षा करना) कर्तव्यकोटिमे आ जाता है। अतः

उसका त्याग शद्भुचूडके त्याग एवं साहसके सामने महत्त्वपूर्ण

नहीं प्रतीत होता, परंतु शद्भुचूडने निर्भय होकर अपने शत्रु

गरुड़को अपना शरीर समर्पित कर एक महान्‌ धर्मात्मा याजाके

प्राण बचाये थे। अतः शद्बचूड ही सबसे बड़े फलका

अधिकार प्रतीत होता है। वैताल राजाके इस उत्तरसे संतुष्ट

हो गया।

~~त

साधना मनोयोगकी महत्ता

(गुणाकरकी कथा)

बैतालने पुनः कल्य -- राजन्‌ ! उज्जयिनीमें महासेन

नामका एक राजा था । उसके राज्यमे देवशर्मा नामका एक

ब्राह्मण रहता धा । देवशर्माका गुणाकर नामक एक पुत्र था, जो

दयत, मद्य आदिकः व्यसनी था । उस दुष्ट गुणाकरने पिताका

सा घन द्यूत आदिमे नष्ट कर दिया । उसके बन्धुओनि उसका

परित्याग कर दिया । वह पृथ्वीपर इर-उधर भटकने लगा ।

दैवयोगसे गुणाकर एक सिद्धके आश्रमम आया, यहाँ कपटीं

नामके एक योगीनि उसे कुछ खानेको दिया, कितु भूखसे

पीडित होते हुए भी उसने उस अन्नको पिशाच आदिसे दूषित

समझकर ग्रहण नहीं किया। इसपर उस योगीने उसके

आतिथ्यके लिये एक यक्षिणीको बुलाया। यक्षिणीने आकर

गुणाकरका आतिथ्य-स्वागत किया। तदनन्तर वह कैलास-

शिखरपर चली गयी। उसके वियोगसे विद्वल होकर गुणाकर

पुनः योगीके पास आया । योगीने यक्षिणीको आकृष्ट करनेवाली

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