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प्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खण्ड ]

* जीवन-दानका आदं *

२५९१

पास आकर कहने लगा-'ॐरे दुष्ट राह्मण ! तुम्हारे द्वारा

दिये गये विषमय खीरकरे खाकर अब मैं मर रहा हूँ। इसलिये

तुम्हें अरह्महत्याका पाप लगेगा।' यह कहकर वह संन्यासी

मर गया और उसने अपनी तपस्थाके प्रभावसे शिवलोक

प्राप्त किया।

चैतालने राजासे पूछा--रण्जन्‌ ! इने ब्रह्महत्याका

पाप किसको लगेगा ? यह मुझे बताओ ।

राजाने कहा-- विषधर नागने अज्ञानवश स्वभावतः

उस पायसको विषमय कर दिया, अतः ब्रह्महत्याका पाप उसे

नहीं होगा।

चकि संन्यासी बुभुक्षित था और भिक्षा माँगने ब्राह्मणके

घर आया था, ब्राह्मणके लिये वह अतिथि देव-स्वरूप था।

अतः अतिथिधर्मका पालन करना उसके कुल-धघर्मके अनुकूल

ही था। उसने श्रद्धासे खीर बनाकर संन्यासीको निवेदित किया;

ऐसेमें वह कैसे ब्रह्महत्याका भागी बन सकता है ? यदि वह

विष मिलाकर अन्न देता, तभी ब्रह्महत्या उसे लगती, क्योंकि

अतिधिका अपमान भी ब्रह्महत्यांके समान ही है। अतः

ब्राह्मणको ब्रह्महत्या नहीं लगेगी । शेष बच गया वह संन्यासी ।

चकि अपने किये गये शुभाशुभ कर्मका फल अवश्य भोगना

पड़ता है । अतः वह संन्यासौ अपने किसी जन्मान्तरीय

कर्मवश क्यालकी प्रेरणासे स्वतः ही म, उसकी मृत्यु

स्वाभाविक रूपसे ही हुई। इसमें किसीका दोष नहीं । पायसका

भोजन करना तो मरनेमे केवल निमित्तमात्र ही था। अतः उसे

भी ब्रहमहत्या नहीं लगेगी । इस प्रकार इन तीनोंमें किसीको भी

ब्रहमहत्या नहीं लगेगी।

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जीवन-दानका आदर्श

(जीमूतवाहन और शङ्खचूडकी कथा)

रुद्वकिकर वैतालने राजा विक्रमादित्यसे कहा--

महाराज ! कान्यकुब्ज (कन्नौज) म दानशील, सत्यवादी एवं

देवी-पूजनमें तत्पर एक ब्राह्मण रहता था । वह प्रतिग्रहसे प्राप्त

द्रव्यका दान कर देता था । एक बार शारदीय नवदुर्गाका त्रत

आया । उसे दानमे कुछ भी द्रव्य प्राप्त नहीं हो सका, अतः

यह बहुत चिन्तित हो गया, सोचने लगा, कौन-सा उपाय करूँ,

जिससे मुझे द्रव्यकी प्राप्ति हो । मैंने दुर्गा -पूजमे कन्याओंको

निमन्वित किया है, अब उन्हें कैसे भोजन कराऊँगा । बह इसी

चित्तामें निमग्न हो रहा था कि देवीकी कृपासे उसे अनायास

पाँच मुद्राएँ प्राप्त हो गयीं और उसीसे उसने व्रत सम्पन्न किया ।

उसने नौ दिनोंतक निराहार व्रते किया था । उस ब्रतके प्रभावसे

मरकर उसने देवस्वरूपको प्राप्त किया। फलतः यह

विद्याधरोंका स्वामी जीमूतकेतु हुआ । वह हिमालय पर्वतके

रम्य स्थानमें रहता था। कहाँ वह भक्तिपूर्वक कल्पवुक्षकी पूजा

भी करता था। उस वृक्षके प्रभावसे उसे सभी कलाओमें

कुशल जीमूतवाहन नामका एक पुत्र प्राप्त हुआ ।

पूर्वजन्म वह जीमूतवाहन मध्यदेशका शूरसेन नामक

राजा था | किसी समय वह राजा शुरसेन आखेटके लिये महर्षि

याल्मीकिकी निवासभूमि उत्पलावर्त नामक बनमें आया । वहाँ

चैत्र शुक्ला नवमीको उसने विधिवत्‌ रामजन्मका श्रीणमनवमी-

उत्सव किया। उसने महर्षि वात्मीकिकी कुटीमें रात्रि-जागरण

भी किया। गममयी गाथाके श्रवणजन्य पुण्यके प्रभावसे वह

शूरसेन यजा ही जीमूतकेतुके पुत्र-रूपमें जीमूतवाहन नामक

विद्याधर हुआ।

उस महात्मा जीमूतवाहनने भी कल्पवृक्षकी श्रद्धापूर्वक

पूजा की। एक वर्धके भीतर ही प्रसन्न होकर उस वृक्षने उससे

वर माँगनेकों कहा । इसपर जीमूतकाहनने कहा-- "महावृक्ष !

मेरा नगर आपकी कृपासे धन-धान्य-सम्पन्न हो जाय।

कल्पवुक्षने नगर्को पृथ्वीमें सर्वश्रेष्ठ कर दिया । वहाँ कोई भी

ऐसा नहीं था जो कल्पवृक्षके प्रभावसे राजाके समान न हो

गया हो। अनन्तर ये पिता और पुत्र दोनों तपस्याके लिये वनमें

चले गये और अतिशय रमणीय मलयाचलपर कठोर तपस्या

करने लगे।

राजन्‌ ! एक दिन राजा मलयध्वजकी पुत्री कमलाक्षी

शिवकी पूजाके लिये अपनी सखियोके साथ शिव-मच्दिस्में

आयी। उसी समय जीमूतवाहन भी पूजाके लिये मन्दिरमे

पहुँचा । सभी अलंकारोंसे अलंकृत दिव्य राजकन्याकों देखकर

उसे प्राप्त करनेकी इच्छा जीमूतवाहनको जाग्रत्‌ हुई तथा इसके

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