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२५२ * संक्षिप्त ख्रह्मपुराण *

~~~] फ:एमफॉ््च्च्च्््््््तकिििििििम फल ाखिचच्च्च् नम

चक्षुस्तीर्थका माहात्म्य

ब्रह्माजी कहते हैं-- चक्षुस्तीर्थ रूप और सौभाग्य | उसे सत्य माना ओर घरसे रत्न लाकर गौतमको देते

देनेवाला है। जहाँ भगवान्‌ योगेश्वर गौतमीके दक्षिण- | हुए कहा--“मित्र! इस धनसे हमलोग सुखपूर्वक

तटपर निवास करते हैं, वहाँ पर्वतके शिखरपर देश-देशान्तरोमें भ्रमण करेंगे और धन कमाकर फिर

भौवन नगर विख्यात स्थान है। यहाँ कषात्र-धर्मपरायण | अपने घरको लौट आयेंगे।' वैश्य तो अपनी सद्भावनाके

गजा भौवन निवास करते थे। उसी नगरमें वृद्धकौशिक | अनुसार सत्य ही कहता था, किंतु ब्राह्मण उसे धोखा

नामके एक ब्राह्मण थे, जिनके वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ दे रहा था। उसके मनमें पाप था। किंतु वैश्य उसे

गौतम नामक पुत्र हुआ। गौतमकी एक वैश्यके साथ | ऐसा नहीं समझता था। दोनेंनि आपसमें सलाह की

मित्रता हुई। वैश्यका नाम मणिकुण्डल था। इनमें | और माता-पिताको सूचना दिये बिना हौ धन

एक दरिद्र और दूसरा धनी था तो भी दोनों एक- | कमानेके लिये देश-देशान्तरमें चल दिये। ब्राह्मण

दूसरेके हितैषी थे। एक दिन गौतमने अपने धनी | सोचने लगा--'जिस किसी उपायसे हो सके, वैश्यका

मित्र मणिकुण्डलसे एकान्तम प्रेमपूर्वकत कहा--' मित्र! | धन ले लूँ। अहो, पृथ्वीपर सहस्र सुन्दर नगर हैं,

हमलोग धनका उपार्जन करनेके लिये पर्वतों और | जहाँ कामकी अधिष्ठात्री देवी-जैसी अभीष्ट भोग

समुद्रोंकी यात्रा करें। यदि अनुकूल सुख न प्राप्त प्रदान करनेवाली युवतियाँ हैं। यदि यत्रपूर्वक धन

हुआ तो समझना चाहिये जवानी व्यर्थ गयी। धनके | लाकर उनको दिया जाय तो वे सदा भोगी जा सकती

बिना सौख्य कैसे प्राप्त हो सकता है। अहो ! निर्धन | हैं और वही जीवन सफल है। किस प्रकार वैश्यसे

मनुष्यको धिक्कार है।' कुण्डलने ब्राह्मणसे कहा--' मेरे | अपने हाथमे आये हुए धनको हड्पकर उसका

पिताने बहुत धन कमाया है। अब अधिक धन | इच्छानुसार उपभोग करूँ?” यह सोचते हुए गौतमने

लेकर क्या करूँगा।' तब ब्राह्मणने पुनः मणिकुण्डलसे | मणिकुण्डलसे हँसते-हँसते कहा--' पापसे ही जीवोंकी

कहा-'जो धर्म, अर्थ, ज्ञान और भोगोंसे तृप्त हो | उन्नति होती है और वे मनोवाज्छित सुख प्राप्त करते

जाय, ऐसा कौन पुरुष प्रशंसनीय माना जाता है। | हैं। संसारे धर्मात्मा लोग दुःखके ही भागी देखे जाते

सखे! इन सबकी अधिकाधिक वृद्धि ही समस्त | हैं। अत: एक मात्र दुःख ही जिसका फल है, उस

शरीरधारियोंको अभीष्ट होती है। जो प्राणी अपने ही | धर्मसे क्या लाभ।'

व्यवसायसे जीवन-निर्वाह करते हैं, वे धन्य हैं। जो |. बैश्यने कहा--ऐसी बात नहीं है। धर्मम ही

दूसरेके दिये हुए धनसे संतोष-लाभ करते हैं, वे कष्से | सुखकी स्थिति है। पापँ तो केवल दुःख, भय

ही जीते हैं। जो पुत्र अपने बाहुबलका आश्रय लेकर | शोक, दरिद्रता और क्लेश हौ रहते हैं। जहाँ धर्म

धनका उपार्जन करता है और पिताके धनको हाथसे | है, वहीं मुक्ति है। भला, अपना धर्म क्या नष्ट हो

नहीं छूता, वह संसारमें कृतार्थ होता है। सकता है?* इस प्रकार विवाद करते हुए दोनोंमें

धनाभिलाषी ब्राह्मणका यह कथन सुनकर वैश्यने | यह शर्त लग गयी कि जिसका पक्ष श्रेष्ठ हो, वह

नेत्युवाच ततो वैश्यः सुखं धर्मे प्रतिष्ठितम्‌ । पपे दुःखं भयं शोको दाद्दरियं क्लेश एव च॥

यतो धर्मस्ततो मुक्ति: स्वधर्मः किं विनश्यति ॥

(१७०। २६)

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